बिहार में चुनावी बिगुल आधिकारिक तौर पर बज चुका है. चुनाव आयोग द्वारा 6 और 11 नवंबर को दो चरणों में वोटिंग के ऐलान के साथ, एक बेहद अहम राजनीतिक मुकाबले का मंच तैयार है. लेकिन इस अहम मुकाबले में किसका पलड़ा भारी है? 14 नवंबर को नतीजों का इंतज़ार करते हुए, इंडिया टुडे के कंसल्टिंग एडिटर, राजदीप सरदेसाई पांच अहम ‘एक्स-फ़ैक्टर्स’ की ओर इशारा कर रहे हैं, जो आखिरकार जीत का फैसला कर सकते हैं.
1. एनडीए के लिए अंकगणितीय बढ़त
कागज़ों पर, यह दौड़ राजनीतिक अंकगणित के आधार पर एनडीए की स्पष्ट बढ़त से शुरू होती है. सत्तारूढ़ एनडीए एक बड़ा गठबंधन है, जिसमें बीजेपी, जेडीयू, जीतन राम मांझी की पार्टी, चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा शामिल हैं. यह मोर्चा संख्यात्मक रूप से विपक्ष यानी आरजेडी, कांग्रेस और वामपंथी दलों के गुट से ज़्यादा मज़बूत है.
2. केमेस्ट्री का चैलेंज
हालांकि गणित एनडीए के पक्ष में हो सकता है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर राजनीतिक समीकरण मुकाबले को और दिलचस्प बना देते हैं. ज़्यादातर सर्वेक्षणों से पता चलता है कि आरजेडी के तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री पद के लिए पसंदीदा विकल्प हैं. हालांकि, उनकी सबसे बड़ी चुनौती आरजेडी के पारंपरिक मुस्लिम-यादव (एम-वाई) वोट आधार से आगे अपनी अपील का विस्तार करना है.
3. नीतीश कुमार फ़ैक्टर
दूसरी ओर, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 20 साल की सत्ता-विरोधी लहर से जूझ रहे हैं और कुछ लोग उन्हें हाल के वर्षों में एक कमज़ोर नेता के रूप में देखते हैं. वे अपनी पार्टी के लिए एक संपत्ति और एक बोझ दोनों हैं. वे एक संपत्ति इसलिए हैं क्योंकि उन्हें करीब 15% वोट शेयर मिलता है, लेकिन एक बोझ इसलिए भी हैं क्योंकि वे सत्ता-विरोधी लहर का चेहरा हैं. इसलिए, अहम सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार अपनी ज़मीन बचा पाएंगे या अब उनका स्थायी पतन हो रहा है.
यह भी पढ़ें: ‘25 से 30, हमारे दो भाई नरेंद्र और नीतीश’, बिहार चुनाव के लिए डिप्टी CM विजय सिन्हा ने दिया नया नारा
4. कल्याणकारी योजनाएं बनाम सत्ता-विरोधी भावना
मतदाताओं की बेचैनी दूर करने के लिए, एनडीए सरकार ने हाल के महीनों में महिलाओं और युवाओं को टारगेट करते हुए प्रत्यक्ष नकद लाभ योजनाओं की एक सीरीज शुरू की है. मतदाताओं के हाथों में सीधे पैसा पहुंचाने की यह रणनीति मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे अन्य राज्यों में कारगर साबित हुई है. ऐसे प्रत्यक्ष कल्याणकारी लाभ पारंपरिक जातिगत समीकरणों को तोड़ सकते हैं और बिहार में सत्ता-विरोधी भावना को दूर करने का एक शक्तिशाली साधन हो सकते हैं.
5. वाइल्डकार्ड प्रशांत किशोर
आखिरी और सबसे अप्रत्याशित पहलू राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की एंट्री है. हालांकि, उनके बड़े प्रचार अभियान ने लोगों का ध्यान खींचा है, लेकिन असली परीक्षा उस उत्साह को वोटों में बदलना है. अगर उनकी पार्टी 10 फीसदी से ज़्यादा वोट हासिल कर लेती है, तो मुकाबला काफ़ी खुला हो सकता है. चूंकि, 2020 का चुनाव सिर्फ़ 12,000 वोटों के बेहद कम अंतर से तय हुआ था, किशोर की एक छोटी सी भी बढ़त दोनों प्रमुख गठबंधनों के वोट खींचकर अंतिम परिणाम को नाटकीय रूप से बदल सकती है.
—- समाप्त —-