साल 2050 तक आपके बच्चे का क्लासरूम वैसे नहीं होगा जैसा आप आज याद करते हैं. इस बदलाव की अच्छी बात ये है कि ये बदलाव उतना बुरा नहीं होने वाला जितना लोग सोचते हैं. हार्वर्ड ग्रेजुएट स्कूल ऑफ एजुकेशन के हाल ही में हुए एक फोरम में कॉग्निटिव साइंटिस्ट हॉवर्ड गार्डनर ने साफ कहा है कि सबको एक जैसी पढ़ाई कराना, एक जैसे टेस्ट से आंकना, ये सब 2050 तक बिलकुल पुराना लगने लगेगा.
गार्डनर के मुताबिक, आने वाला समय बच्चों को एक ही किताब रटवाने और एक ही रफ्तार से पढ़ाने का नहीं होगा. स्कूल सिर्फ शुरुआती सालों में बेसिक चीजें सिखाएंगे. उनके अनुसार पढ़ाई सिर्फ 18 साल तक सीमित नहीं होगी और न ही परीक्षा अंतिम पैमाना रहेगी. भविष्य में बच्चों को उनकी कल्पनाशक्ति और उनकी बनाई चीजों से आंका जाएगा. यानी शिक्षा एकरूपता से व्यक्तिगत उद्देश्य की ओर बढ़ेगी. सच कहें तो गलत वो भी नहीं हैं.
आज अगर आप किसी औसत इंडियन स्कूल में जाएंगे तो देखेंगे कि पढ़ाई वाकई पुरानी सोच पर टिकी हुई है. यहां बच्चों को जबरदस्ती रटाया जाता है, सवालों को समझे बिना ही जवाब दोहराने दिए जाते हैं और पूरी शिक्षा प्रणाली उस दुनिया के लिए बनी है जो अब रह ही नहीं गई. लेकिन अब जब AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) क्लासरूम के दरवाजे पर दस्तक दे रही है तो ऐसे में एजुकेशन पर दुनिया की बातचीत बदल रही है. अब सवाल है, क्या भारत ये बातचीत सुनेगा?
हो चुकी है बदलाव की शुरुआत
हार्वर्ड फोरम ने साफ कर दिया है कि शिक्षा सिर्फ थोड़ा-बहुत नहीं बदलेगी, बल्कि बड़ा बदलाव पहले से ही शुरू हो चुका है. गार्डनर ने भविष्य की तस्वीर बताते हुए कहा कि बच्चे शुरुआती सालों में सिर्फ बेसिक चीजें सीखेंगे. वो पढ़ना, लिखना, गणित, शायद कोडिंग और उसके बाद प्रोजेक्ट्स, खुद से रिसर्च और AI की मदद से सीखने के रास्तों पर बढ़ेंगे.
इस स्थिति में पुराना मॉडल, यानी एक ही क्लास, एक जैसे एग्जाम और एक जैसी पढ़ाई, खत्म होना तय है. उसकी जगह लेगी व्यक्तिगत, खोज-आधारित और मेंटर द्वारा गाइड की गई पढ़ाई.
क्या आ चुकी है इंडियन स्कूलिंग की एक्सपायरी डेट
सुनने में अलग रहा है, है न? और ये भविष्य बहुत दूर भी नहीं है. नोएडा का 13 साल का एक लड़का पहले से ही YouTube से स्पेनिश सीख रहा है, Reddit से AI आर्ट टूल पकड़ रहा है और अपने ट्यूशन टीचर से बेहतर प्रॉम्प्ट लिखता है. वहीं उसका कजिन उत्तर प्रदेश के एक गांव के स्कूल में टूटे हुए ब्लैकबोर्ड पर जोड़-घटाव सीख रहा है.
यहीं पर भारत की असली समस्या है. हमारी शिक्षा व्यवस्था पीछे नहीं है बल्कि दो हिस्सों में बंटी हुई है. कुछ बच्चे बहुत आगे निकल रहे हैं और बाकी अब भी 1980 के जमाने में अटके हैं. इंडियन स्कूलिंग की एक्सपायरी डेट आ चुकी है. सीधे शब्दों में कहें तो इंडियन एजुकेशन सिस्टम न तो क्रिएटर्स बनाने के लिए बनी थी, न क्रिटिकल थिंकर के लिए और न ही इनोवेटर्स के लिए.
हमने अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था को अपनाया और उसे सरकारी सटीकता से फैलाया, एक जैसी किताबें, तय उम्र के हिसाब से क्लास, बोर्ड परीक्षाएं, जहां बच्चों का भविष्य सिर्फ नंबरों से तय होता है. इस सिस्टम ने रटने वालों को तो पुरस्कृत किया लेकिन अलग सोचने वालों को दबाया और असफलता से इतना डराया कि प्रासंगिकता (relevance) से भी बड़ी समस्या बना दी.
फिर हमें हैरानी होती है कि बच्चे असल दुनिया के लिए तैयार क्यों नहीं हैं या वे असली पढ़ाई के लिए ऑनलाइन ‘एडटेक’ कंटेंट की तरफ क्यों भाग रहे हैं. हरियाणा की एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी की चेयरपर्सन अनीशा धवन कहती हैं कि भविष्य की शिक्षा सिर्फ कंटेंट डिलीवरी नहीं होगी. इसमें जिज्ञासा, नैतिकता, अलग-अलग विषयों का मेल, वो सब होगा जिसे हमारी मौजूदा शिक्षा दबाती है. साफ है कि AI सिर्फ एक टूल नहीं है बल्कि एक आईना है जो हमें दिखा रहा है कि हमारी मौजूदा व्यवस्था कितनी पुरानी पड़ चुकी है.
क्या चेतावनी है हार्वर्ड का विजन
हार्वर्ड में एक्सपर्ट्स ने इस बात पर जोर दिया कि आने वाले समय में छात्र खुद काम नहीं करेंगे बल्कि वे AI टीमों को संभालेंगे, क्रिएटिव प्रोजेक्ट्स को दिशा देंगे और ऐसे फैसले लेंगे जहां AI की भी लिमिट आ जाती है.
Six Faces of Globalization की सह-लेखिका एन्थिया रॉबर्ट्स ने इसे बेहद खूबसूरती से कहा कि आप एक्टर के डायरेक्टर होंगे, एथलीट के कोच होंगे और राइटर के एडिटर होंगे. मतलब करने वाले इंसान नहीं बल्कि संचालक बनेंगे. नैतिक सोच, क्रिएटिव जोड़-तोड़ और सही फैसले लेना, ये सब रटने से ज्यादा अहम होगा.
दिल्ली के एक नामी प्राइवेट स्कूल की प्रिंसिपल दीपिका कुलश्रेष्ठ मानती हैं कि मौजूदा शिक्षा बच्चों को सोचने की ट्रेनिंग ही नहीं देती.
वो कहती हैं कि अगर आप CBSE क्लास 11 के बच्चे से पूछें कि AI की भूमिका का नैतिक मूल्यांकन करो तो ज्यादातर नहीं कर पाएंगे क्योंकि उन्हें कभी सोचना सिखाया ही नहीं गया. वे सिर्फ बोर्ड पेपर हल करने में लगे रहते हैं. उनके मुताबिक ये बच्चों की गलती नहीं है बल्कि उस सिस्टम की है जिसमें हमने उन्हें कैद कर रखा है.
भारत को क्या करना होगा
अगर हमें AI के साथ बड़े होने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षा को फिर से गढ़ना है, तो हमें असली बदलाव करना होगा. सिर्फ नीति बनाने या कमेटी रिपोर्ट से काम नहीं चलेगा. ये वो बदलाव हैं जो हमें अपनाने होंगे.
1. शिक्षकों को फिर से तैयार करना होगा
भविष्य का टीचर ‘कंटेंट डिस्पेंसर’ नहीं होगा बल्कि एक क्यूरियोसिटी कोच, नैतिक मार्गदर्शक और प्रोजेक्ट गाइड होगा. इसके लिए उन्हें AI-फ्रेंडली और भविष्य के मुताबिक ट्रेन करना होगा.
2. एग्जाम्स की जगह नए मॉडल
एक जैसे बोर्ड एग्जाम अब बच्चों की सही ग्रोथ नहीं दिखाते. इसकी जगह AI-आधारित असेसमेंट चाहिए, जो बच्चों के सिर्फ अंक नहीं बल्कि उनकी प्रोग्रेस को ट्रैक करें.
3. डिजिटल डिवाइड खत्म करना
AI क्रांति तभी संभव है जब हर बच्चे के पास इंटरनेट और डिवाइस की पहुंच हो. इसके लिए कम्युनिटी लर्निंग हब और ऑफलाइन टूल्स जरूरी हैं.
4. सब्जेक्ट्स की बाउंड्री खत्म करना
बच्चों को अपनी पढ़ाई का रास्ता खुद तय करने देना होगा. जैसे बच्चे अगर इतिहास के साथ कोडिंग, क्लाइमेट साइंस के साथ लिटरेचर या संस्कृत के साथ रोबोटिक्स पढ़ना चाहते हैं तो उन्हें ये ऑप्शन देने होंगे.
5. भारतीय मॉडल विकसित करना
हमें पश्चिम की नकल नहीं करनी बल्कि इंडियन एजुकेशन को अपनी भाषाई, सांस्कृतिक और दार्शनिक विविधता से जोड़ना होगा. AI हमारी अपनी सोच को बढ़ाए, सिर्फ दूसरों की कॉपी न बने.
इंडिया छलांग लगाएगा या पीछे रह जाएगा?
कठोर सच्चाई ये है कि AI शिक्षा को बदलकर ही छोड़ेगा, चाहे भारत चाहे या न चाहे. फर्क सिर्फ इतना है कि भारत इस बदलाव को आकार देगा या उसके नीचे दब जाएगा. भारत के पास जनसंख्या, डिजिटल ढांचा और सांस्कृतिक उत्सुकता है कि वो भविष्य में छलांग लगाए. लेकिन उसके पास एग्जाम ऑब्सेशन, नौकरशाही और पुराना ढर्रा भी है जो उसे पीछे खींच सकता है.
हार्वर्ड फोरम में गार्डनर ने कहा था कि शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ अच्छी नौकरी या स्कूल में दाखिला पाना नहीं होना चाहिए. भारत को ये बात तुरंत सुननी चाहिए क्योंकि साल 2050 में मायने ये नहीं रखेगा कि किसने कौन सा बोर्ड एग्जाम टॉप किया. असली फर्क ये होगा कि किसने सोचना सीखा कि AI के साथ, AI से आगे और कभी-कभी AI के खिलाफ भी.
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