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    एक असुर का शरीर कैसे बन गया पितरों की मुक्ति का स्थान… कहानी उस तीर्थ की जहां से सीधे वैकुंठ जाती हैं आत्माएं

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    श्राद्ध पक्ष जारी है. इस दौरान पितरों के लिए पिंडदान, तर्पण के साथ उनका श्राद्ध करने की परंपरा है. इस विशेष कर्म के लिए भारत में गयाजी तीर्थ स्थल सबसे प्रसिद्ध है और मान्यता है कि यहां पर पिंडदान, श्राद्ध या तर्पण करने से पितृ सीधे वैकुंठ को जाते हैं. वैकुंठ भगवान विष्णु का निवास माना जाता है और मान्यता है कि अगर जीवात्मा वैकुंठ जाती है तो इसका अर्थ है कि वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो गई है.  

    इसलिए भारत के पूर्वी राज्य बिहार में स्थित गयाजी शहर, देश की संस्कृति का भी हिस्सा रहा है. जीवन के 16 संस्कारों में अंत्येष्टि आखिरी संस्कार होता है, लेकिन मानवीय जीवन के संबंध यहां खत्म नहीं हो जाते हैं, बल्कि माना जाता है कि पूर्वज पितृ देवता के रूप में स्थापित हो जाते हैं और एक सकारात्मक ऊर्जा के रूप में उनका जुड़ाव, अपनी संतानों से बना रहता है. पितृ सिर्फ आत्मा नहीं होते हैं, बल्कि पितृ, मित्र भी होते हैं और उनके साथ वंशजों का संबंध वैसा ही स्नेह से भरा होता है, जैसा वह आपके साथ जीवित रहते हुए निभाते हैं.

    गया तीर्थ में तर्पण करने से तर जाती है 25 पीढ़ी
    श्राद्ध पक्ष की परंपरा संसार में अकेली एक ऐसी संस्कृति है, जहां अपनी जड़ों के आखिरी सिरे को भी याद करने, उन्हें श्रद्धांजलि देने और खास तौर पर उन्हें जल पिलाने की परंपरा कायम है, इसे तर्पण कहते हैं. इसी कारण गया शहर को सामान्य लोक बोलचाल में गयाजी ही कहा जाता है और इसे सभी तीर्थों और धामों में से सबसे उत्तम माना जाता है. यहां पितरों का तर्पण किया जाता है और कहते हैं कि गया तीर्थ में तर्पण करने से मनुष्य अपने 25 पीढ़ी तक के पितरों को मुक्ति दिलाता है. 

    बिहार में स्थित गयातीर्थ सनतान परंपरा का महत्वपूर्ण और अद्भुत तीर्थ है. तीर्थराज प्रयाग और ऋषिकेश की ही तरह गयाजी को भी पुण्य स्थल माना गया है. पितृपक्ष के अवसर पर यहां पितरों को तर्पण आदि किया जाता है. मान्यता है कि सर्वपितृ अमावस्या के दौरान गयाजी में पितरों को पानी देने से वह तृप्त होते हैं और वैकुंठ को जाते हैं. 

    गया में है भगवान विष्णु का विष्णुपद मंदिर

    गया तीर्थ की इस महत्ता का कारण है यहां स्थित श्रीविष्णु पद मंदिर. भगवान विष्णु के चरण कमल की छाप -पदचिह्न वाले इस मंदिर को विष्णुपद मंदिर कहा जाता है. यहां एक विशाल शिला पर भगवान विष्णु के चरण चिह्न अंकित हैं, इसलिए इसे धर्मशिला के नाम से भी जाना जाता है. ऐसी भी मान्यता है कि पितरों के तर्पण के बाद इस मंदिर में भगवान विष्णु के चरणों के दर्शन करने से दुखों का नाश होता है और पूर्वज पुण्यलोक को प्राप्त करते हैं. फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर मौजूद यह मंदिर श्रद्धालुओं के अलावा पर्यटकों के बीच भी काफी लोकप्रिय है. 

    श्रद्धालु इन पदचिह्नों पर लाल चंदन का लेप करते हैं, उसे साक्षी भाव से मस्तक पर लगाते हैं. इस शिला पर गदा, चक्र, शंख आदि अंकित किए जाते हैं. यह परंपरा भी काफी प्राचीन काल चली आ रही है और इसी मंदिर से जुड़ा है गया तीर्थ के नामकरण का इतिहास. जानकर आश्चर्य हो सकता है, जिस गया तीर्थ को सभी तीर्थों में उत्तम माना गया है, वह तीर्थ एक असुर के नाम पर पड़ा है.  

    वायु पुराण में है गयाजी की कथा
    वायुपुराण में बड़े ही विस्तार से इसकी कहानी दर्ज है. यह रहस्य देवर्षि नारद ने ब्रह्माजी के चार बाल मानसपुत्रों सनकादि ऋषियों से पूछा था. उन्होंने पूछा कि गयाजी तीर्थ का क्या महत्व है और इसका नामकरण कैसे हुआ? तब सनत्कुमार ऋषि ने एक कहानी के जरिए इस रहस्य को बताया था. वायु पुराण के गयामहात्म्य खंड में इसका विस्तार से वर्णन है.

    गयासुरः कथं जातः, प्रभावः किं-किमात्मकः।
    तपस्तप्तं कर्त्तवेन, कथं तेन अपवित्रता॥

    सनत्कुमार उवाच —
    विष्णोर्नाभिं समुत्पन्नं, पद्मं तस्मात् पितामहः।
    प्रजाः सृजेत्यसंप्रोक्तं, पवित्रं तेन विष्णुना॥

    आसुरेण भावेन अद्य, सुरान् असृजत जल्परः।
    सो मनस्य भावेन देवान्, सुमनसः सृजत् पुनः॥

    गयासुरः सुराणां च, मदाभवपराक्रमः।
    योजनानां सपादं च, अङ्गुलिस्तस्योर्जितः स्मृतः॥

    स्थूलः षष्टि-योजनानां, धृष्टः स वेदवेदितः।
    कोकाद्रि गिरिवरे, तपस्तप्तं सुदारुणम्॥

    विशालकाय था असुर जो बन गया तीर्थ

    यह कथा श्वेत वाराह कल्प की है. इस दौरान धरती पर पाप सिर्फ अंश भर था और धर्म अपने पूर्ण रूप में मौजूद था. इसी दौरान असुर कुल में एक दैत्य गयासुर हुआ. बड़ा होने पर वह भी अन्य दैत्यों की ही तरह विशालकाय और पर्वताकार हो गया. उसकी विशालता का अंदाजा ऐसे लगा सकते हैं कि उसकी उंगली की मोटाई ही डेढ़ योजन थी और उसका सारा शरीर साठ योजन लंबा था.

    धर्म के प्रभाव से गयासुर कोकाद्रि नाम के पर्वत पर कठोर तप करने लगा. कई सौ वर्षों तक बिना विचलित हुए तप करने से त्रिलोक में हाहाकार मच गया. बिना किसी आहार के और स्थिर होकर उसकी तपस्या करने से देवता, ऋषि सभी घबराए और ब्रह्मा जी के नेतृत्व में भगवान विष्णु के पास पहुंचे. उन्होंने उनसे विनती की और कहा- “हे विष्णुजी! गयासुर बहुत बलवान हो गया है, उसके द्वारा समस्त पृथ्वी पर पवित्रता फैल रही है, जिससे यज्ञ-कर्म और धर्मकृत्य निष्फल हो सकते हैं. कर्म का विधान भी खतरे में पड़ता दिख रहा है.कृपया उसे कोई ऐसा वर दें जिससे धर्म की रक्षा भी हो जाए और गयासुर की तपस्या भी सफल हो जाए.”

    भगवान विष्णु ने दिया था गयासुर को पवित्रता का वरदान

    जब भगवान विष्णु गयासुर के सामने आए तो उसने कहा, आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी देह को ऐसा पवित्र कर दीजिए कि जो उसे देखे, स्पर्श करे वह सीधे मोक्ष का अधिकारी हो जाए और उसे वैकुंठ या शिवलोक से कम कुछ न मिले. तब भगवान विष्णु मुस्कराए और बोले – “तथास्तु, ऐसा ही होगा. अब गयासुर पृथ्वी पर सबसे पवित्र व्यक्ति हो गया और उसके प्रभाव से यमलोक, स्वर्गलोक सब कुछ सूना होने लगा, यहां तक कि कर्म पर आधारित धर्म का विचार भी नष्ट हो गया और पापी और पुण्यात्मा में कोई फर्क नहीं रह गया. सृष्टि के संचालन में इस तरह बाधा आने लगी. 

    तब देवताओं ने एक दिन इकट्ठे होकर अपने-अपने अधिकारों और दायित्वों का त्याग करने का निश्चय किया और इसकी जानकारी देने त्रिदेवों के पास पहुंचे. इस पर ब्रह्ना-विष्णु और शिवजी तीनों ने ही, देवताओं को इससे रोका. हालांकि देवताओं की चिंता ठीक भी थी. क्योंकि विष्णु जी के वरदान के कारण अधिकार और कर्तव्य पालन की जरूरत ही नहीं पड़ गई थी. गयासुर एक तरीके से कर्म के सिद्धांत को चुनौती दे रहा था. 

    ब्रह्माजी ने यज्ञ के लिए मांगी गयासुर की देह 

    यह सुनकर ब्रह्नमाजी भी चिंता में आ गए. तब विष्णु जी ने सुझाव दिया कि हे ब्रह्मा, आप धरती पर स्थित किसी सबसे पवित्र तीर्थ पर यज्ञ का आयोजन कीजिए. महाविष्णु की आज्ञा से ब्रह्ना जी पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे लेकिन उन्हें धरती पर उन्हें एक भी ऐसा पूर्ण पवित्र स्थान नहीं मिला. तब वह महाविष्णु का संकेत समझकर गयासुर के पास पहुंचे और अपना प्रयोजन बताया. ब्रह्माजी ने कहा, क्योंकि तुमने वरदान में सभी तीर्थों से अधिक पवित्रता मांग ली है, इसलिए तुमसे अधिक पवित्र कोई है नहीं, लेकिन मुझे महाविष्णु की आज्ञा से एक परम पावन यज्ञ करना है तो वह कहां करूं. 

    ब्रह्माजी के इस प्रश्न को सुनकर गयासुर सोच में पड़ गया और फिर बोला कि आपकी बात तो ठीक है, मुझसे पवित्र तो कुछ भी नहीं. बस इसी एक वाक्य से गयासुर के भीतर अहंकार समा गया, क्योंकि अनजाने ही अहं का प्रयोग कर लिया. ‘मुझसे पवित्र कुछ नहीं’ से उसके भीतर अहंकार का विकार आया. इस विकार के कारण उसकी पवित्रता का तेज कुछ अंश कम हो गया. 

    इस दौरान, ब्रह्मदेव ने गया सुर से उसका शरीर ही यज्ञ के लिए मांग लिया, जिसने सहर्ष ही अपना शरीर ब्रह्माजी के यज्ञ के लिए दान कर दिया. ब्रह्मा जी ने उससे लेट जाने को कहा. गयासुर ने उत्तर की ओर सिर किया और दक्षिण की ओर पैर. अब उसके शरीर पर समतल स्थल बनाने के लिए उसे शिला से स्थित किया, ताकि उस पर यज्ञ हो सके. वायुपुराण के अनुसार राक्षस गयासुर को नियंत्रित करने के लिए भगवान विष्णु ने शिला रखकर उसे दबाया था. इसीसे शिला पर उनके चरण छप गए.  

    ऐसे पड़े भगवान विष्णु के चरण चिह्न
    विष्णुपद मंदिर में भगवान विष्णु का चरण चिह्न ऋषि मरीची की पत्नी माता धर्मवत्ता की शिला पर है. राक्षस गयासुर को स्थिर करने के लिए धर्मपुरी से माता धर्मवत्ता शिला को लाया गया था, जिसे गयासुर पर रख भगवान विष्णु ने अपने पैरों से दबाया. इसके बाद शिला पर भगवान के चरण चिह्न बन गए. 

    गयाजी में किया गया श्राद्ध इतना बलशाली होता है कि एक बार यहां किसी ने अपने पितृ का श्राद्ध कर दिया तो फिर कभी भी उनका श्राद्ध नहीं करना पड़ता है. इस स्थान पर तर्पण करने से मृतात्मा को शतयज्ञों (100 यज्ञों का फल) मिलता है और गुरु पत्नि गमन जैसे महापातक (कठोर पाप) भी कट जाते हैं.

    —- समाप्त —-



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