Gen-Z के नेतृत्व में नेपाल में बड़े पैमाने पर जो विरोध प्रदर्शन हो रहा वो लंबे समय से पनप रहा था लेकिन इसका अचानक से भड़क जाना बेहद चौंकाने वाला है. नेपाल के विरोध-प्रदर्शन का आज दूसरा दिन है और इसका निशाना प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली हैं जिन्होंने अब इस्तीफा दे दिया है. खास बात यह है कि ओली हाल ही में चीन से लौटे हैं और सितंबर के अंत में भारत यात्रा पर आने वाले थे.
सोमवार को हुए प्रदर्शनों में कम से कम 20 लोगों की मौत हो गई. युवाओं और स्कूल की यूनिफॉर्म पहने छात्र सुरक्षा बलों से भिड़ गए और प्रदर्शन हिंसक हो गया. हालात बिगड़ने के बाद कर्फ्यू लगा दिया गया लेकिन युवाओं की नाराजगी में ओली सरकार बच नहीं सकी.
आंदोलन की हालिया वजह सरकार का सोशल मीडिया ऐप्स पर बैन लगाने का फैसला बताया जा रहा है लेकिन पिछले एक हफ्ते से ‘नेपो किड्स’ और ‘नेपो बेबीज’ जैसे शब्दों के ट्रेंड होने से यह साफ था कि असंतोष धीरे-धीरे बढ़ रहा था. ये ट्रेंड्स संकट की तरफ इशारा कर रहे थे.
नेपाल, SAARC और चीन-तिब्बत मामलों के वरिष्ठ पत्रकार केशव प्रधान ने इंडिया टुडे डिजिटल को बताया, ‘ये विरोध प्रदर्शन खुद से शुरू हुए लगते हैं. इस समय यह नतीजा निकालना जल्दबाजी होगी कि इसके पीछे कोई बाहरी ताकत है. लेकिन नेपाल लंबे समय से अस्थिर चल रहा है जिसका फायदा उठाने के लिए अब बाहरी और घरेलू ताकतें सक्रिय हो सकती हैं.’
एक्सपर्ट प्रदर्शनकारियों की तरफ से आंदोलन के दौरान लगाए जा रहे नारों और पोस्टरों की तरफ ध्यान दिलाते हैं. वो कहते हैं, ‘ये लोग भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, बेरोजगारी और भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर बड़े पैमाने पर पलायन जैसे मुद्दों पर बात कर रहे हैं. यह गुस्सा अचानक नहीं फूटा, बल्कि लंबे समय से पनप रहा था.’
उन्होंने यह भी कहा कि नेपाल के युवा यूट्यूबर्स सरकार की पोल खोल रहे थे- गड्ढों वाली सड़कों से लेकर पलायन तक के मुद्दों पर. और यही असंतोष आंदोलन का रूप ले चुका है.
प्रदर्शन का समय और ओली का विदेश दौरा
नेपाल मामलों के जानकार प्रधान के मुताबिक, इन विरोध-प्रदर्शनों का समय भी अहम है क्योंकि यह ओली के चीन से लौटने और भारत दौरे की तैयारी के ठीक बीच में भड़के हैं.
इंडिया टुडे डिजीटल से बात करते हुए वो कहते हैं, ‘ओली इस महीने के अंत में भारत की यात्रा पर आने वाले हैं. भारत के विदेश सचिव हाल ही में ओली की यात्रा की तैयारी के लिए नेपाल गए थे. ओली भी तियानजिन में एससीओ शिखर सम्मेलन में शामिल होने के बाद चीन से लौटे हैं.’
क्या नेपाल में बांग्लादेश वाला हालात दोहराए जा रहे हैं?
नेपाल की स्थिति भारत के लिए रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण है. यह दूसरा पड़ोसी देश है जहां एक साल के भीतर राजनीतिक उथल-पुथल हुई है. 2024 के जुलाई-अगस्त में बांग्लादेश में छात्र आंदोलन ने वहां की प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार गिरा दी थी. हसीना को प्रॉ-इंडिया नेता माना जाता था.
बांग्लादेश की तरह नेपाल में भी बाहरी ताकतों का प्रभाव लगातार बढ़ता रहा है. ओली के नेतृत्व में दिसंबर 2024 में नेपाल ने चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) में शामिल होने के लिए फ्रेमवर्क एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किया था.
दूसरी ओर, अमेरिका मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (MCC) के तहत नेपाल में 50 करोड़ डॉलर के इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में निवेश कर रहा है. पिछले महीने भारत और चीन ने उत्तराखंड के लिपुलेख दर्रे से व्यापार मार्ग खोला. इस पर ओली ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से कहा कि यह इलाका नेपाली क्षेत्र है, जबकि वास्तव में यह भारतीय सीमा के भीतर है और भारत का अभिन्न हिस्सा है. 2015 के बाद पहली बार था जब किसी नेपाली नेता ने इस तरह का बयान सीधे चीनी राष्ट्रपति के सामने दिया.
इसी तरह 2020 में ओली ने लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को 1816 की सुगौली संधि के आधार पर नेपाल का हिस्सा बताया था.
ओली का चीन की तरफ झुकाव
वरिष्ठ कम्यूनिस्ट नेता ओली जुलाई 2024 में प्रधानमंत्री बने थे और वो चीन समर्थक नेता माने जाते हैं. प्रधानमंत्री बनने के एक साल बाद भी उन्होंने भारत की यात्रा नहीं की. नेपाल के प्रधानमंत्री पारंपरिक रूप से पहले भारत जाते हैं, लेकिन ओली का पहला विदेश दौरा चीन का रहा, जिससे उनका झुकाव साफ हो गया.
17 अगस्त को भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री नेपाल गए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से ओली को भारत आने का औपचारिक निमंत्रण सौंपा. रिपोर्ट्स के मुताबिक, ओली की भारत यात्रा 16 सितंबर के लिए तय थी.
प्रधान कहते हैं, ‘नेपाल में जब भी कोई राजनीतिक संकट आता है, लोग इसे भारत या चीन से जोड़ते हैं. इस साल की शुरुआत में हुए राजशाही समर्थक प्रदर्शनों को भी भारत से जोड़ा गया था.’
विशेषज्ञों का कहना है कि ओली की राजनीति व्यावहारिक नहीं है क्योंकि वो सदियों पुराने और मजबूत नेपाल-भारत संबंधों की तुलना चीन के साथ संबंधों से करने की कोशिश करते हैं. ऐतिहासिक रूप से, नेपाल की सीमा भारत और तिब्बत से लगती थी, न कि चीन से.
नेपाल की राजनीतिक उथल-पुथल में किसकी भूमिका?
नेपाल की मौजूदा अशांति को लेकर कई थ्योरी सामने आ रही हैं. कुछ लोग कह रहे हैं कि ओली चीन समर्थक हैं, इसलिए इसमें अमेरिका की भूमिका हो सकती है, जैसे बांग्लादेश में हुआ था. दूसरी ओर, कुछ का मानना है कि चीन विरोध को भड़का रहा है, ताकि अमेरिका के MCC निवेश को कमजोर किया जा सके.
वहीं, कुछ लोग मानते हैं कि Gen Z का ‘नेपो किड्स’ आंदोलन, प्रॉ-मोनार्की समर्थकों से जुड़ा है, जिन्हें प्रॉ-इंडिया भी माना जाता है. प्रधान ने कहा कि अचानक से अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप, बीजिंग और ‘डीप स्टेट’ की भागीदारी की खबरों का फैलना मुश्किल को और बढ़ा सकता है.
वो कहते हैं, ‘नेपाल अब एक ऐसा मैदान बन गया है, जहां चीन की BRI और अमेरिका की MCC फंडिंग के चलते अंतरराष्ट्रीय हितों की टकराहट हो रही है.’ हालांकि प्रधान का कहना है कि नेपाल में फैले इन प्रदर्शनों में बीजिंग की सीधी भूमिका नहीं है. वो कहते हैं, ‘चीन इतनी बड़ी अशांति पूरे नेपाल में नहीं फैला सकता, खासकर तराई क्षेत्र में. उसका प्रभाव ज्यादातर काठमांडू घाटी तक ही सीमित है.”
उन्होंने यह भी कहा कि चीन भी इस आग को भड़काने से बचेगा, क्योंकि उसकी बाजी कभी भी पलट सकती है. वो कहते हैं, ’60 के दशक में भी नेपाल के लोगों ने चीन के खिलाफ प्रदर्शन किए थे और काठमांडू में चीनी नेताओं की तस्वीरें तक फाड़ दी थीं.’
नेपाल में बार-बार बदलती सरकार और बाहरी ताकतें
सोमवार को काठमांडू से शुरू हुए प्रदर्शन जल्द ही झापा जिले, जहां से ओली आते हैं, तक फैल गए. इसके बाद ये प्रदर्शन सुनसरी तक फैल गया, जहां से गिरिजा प्रसाद कोइराला आते है. इसके अलावा ये उत्तर प्रदेश की सीमा से सटे भैरहवा और बिहार की सीमा पर स्थित बिराटनगर तक भी फैल गए.
2008 में राजशाही खत्म होने के बाद से अब तक नेपाल में 13 सरकारें बन चुकी हैं. लेकिन इनमें से किसी भी सरकार ने आम जनता की उम्मीदों को पूरा नहीं किया. व्यवस्थित भ्रष्टाचार बना रहा और किसी सरकार में विकास नहीं हुआ. नेपाल लंबे समय से उबल रहा था और राजा ज्ञानेन्द्र शाह के समर्थन में हुई रैलियों को भी इसी असंतोष से जोड़ा गया.
नेपाल में बार-बार सरकार बदलने के पीछे न सिर्फ घरेलू संकट, बल्कि बाहरी ताकतों का भी हाथ माना जाता है. जिस तरह से ये विरोध-प्रदर्शन अचानक बहुत बड़े पैमाने पर पूरे देश में फैल गए, उसने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. और इस आंदोलन के भड़कने का समय भी वाकई बेहद चौंकाने वाला है.
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