भारत के गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (GST) काउंसिल ने हाल ही में एक बड़ा फैसला लिया है. इस फैसले के तहत लक्जरी चीजों को 40 फीसदी जीएसटी स्लैब में रखा गया है, जिसमें कोल्ड ड्रिंक्स, आइस्ड टी, एनर्जी ड्रिंक और बाकी शुगरी ड्रिंक्स शामिल हैं. इसका सीधा मतलब निकलता है कि चीनी अब केवल सेहत के लिए समस्या नहीं है, बल्कि एक सार्वजनिक खतरा बन चुकी है.
फिर भी, मिठाइयों को इस टैक्स स्लैब में छूट दी गई है. सिस्टम में जहां एक ओर कोला जैसी शुगरी ड्रिंक्स को 40 फीसदी जीएसटी स्लैब में रखा गया है वहीं, गुलाब जामुन, काजू कतली, रसगुल्ला और हलवा जैसी इंडियन मिठाइयों पर सिर्फ 5 फीसदी जीएसटी लगा है.
सरकार ने सभी जरूरी फूड्स पर कोई टैक्स नहीं लगाया है, बल्कि रोजाना की कई वस्तुओं जैसे भारतीय मिठाइयां, मक्खन, घी, ड्राई फ्रूट्स, कंडेंस्ड मिल्क, सॉसेज, मीट, शक्कर युक्त कन्फेक्शनरी, जैम, जेली, नारियल पानी, नमकीन, पानी, जूस, आइसक्रीम, बिस्कुट, और अनाज पर जीएसटी 18% से घटाकर 5% कर दिया है.
अगर यह आपको गलत लगता है, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि यह सच है. आप एक बार में चीनी को पब्लिक हेल्थ के लिए खतरा घोषित नहीं कर सकते और फिर अगली ही बार में उसे पवित्र भी ठहरा सकते हैं. एक्सपर्ट्स इस फैसले को भावनाओं में लिपटी और राजनीतिक स्वार्थ से भरी हुआ बताकर उजागर करते हैं.
हेल्थ के नजरिए से देखें तो भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) की सलाह है कि हमें अपनी डेली डाइट में ज्यादा से ज्यादा 5 फीसदी शक्कर को ही शामिल करनी चाहिए, जबकि शहरी भारत में लोग औसतन 80-90 ग्राम शक्कर रोज खाते हैं जो सुरक्षित सीमा से तीन गुना ज्यादा है.
एक गुलाब जामुन में लगभग 56 ग्राम कार्बोहाइड्रेट होते हैं, जबकि 250 मिलीलीटर कोला में लगभग 26 ग्राम शक्कर होती है. लेकिन हमारा शरीर संस्कृति की परवाह नहीं करता. चाहे शक्कर झागदार कोले से आए या मिठाई के डिब्बे से, शरीर पर समान असर पड़ता है: इंसुलिन स्पाइक्स, वजन बढ़ना, फैटी लीवर और डायबिटीज की संभावना बढ़ती है.
भारत में अब 10 करोड़ से ज्यादा डायबिटीज के मरीज हैं, जबकि 13 करोड़ से ज्यादा लोग प्री-डायबिटिक हैं. फिर भी, जीएसटी सुधार इस गंभीर स्थिति को नजरअंदाज करते हैं.
सवाल यह उठता है कि कोल्ड ड्रिंक्स को खराब चीज क्यों कहा जाता है, जबकि मिठाइयों को संस्कृति का हिस्सा क्यों माना जाता है? कोल्ड ड्रिंक्स को वेस्टर्न, शहरी वर्ग की वस्तु माना जाता है, जबकि मिठाई धार्मिक अनुष्ठान, पारिवारिक रस्मों और सांस्कृति से जुड़ी है. लेकिन सेहत के लिए दोनों एक समान ही हैं.
इसलिए हमें शक्कर पर एक जैसी टैक्स पॉलिसी बनानी चाहिए, बिना किसी सांस्कृतिक या भावनात्मक पक्षपात के. अगर हम लाइफस्टाइल से जुड़ी बीमारियों से लड़ना चाहते हैं, तो मिठाइयों को भी उतनी ही कड़ी निगरानी के दायरे में लाना होगा जितना कि कोल्ड ड्रिंक्स आदि को रखा जाया है.
इसके अलावा, फूड पैकेजिंग पर चीनी की मात्रा को बताते हुए लेवल चिपकाए जाने चाहिए, ताकि लोग जागरूक होकर हेल्दी ऑप्शन चुन सकें. साथ ही, जरूरी है कि मार्केट में कम शक्कर वाली मिठाइयां भी बनें और एक नेशनल शक्कर जागरूकता अभियान शुरू करना चाहिए.
शक्कर को लेकर हमें सांस्कृतिक भावनाओं के बजाय वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर नीति बनानी होगी ताकि हम आने वाली पीढ़ियों की हेल्थ की रक्षा कर सकें. कोला पर टैक्स लगाना अच्छा कदम है, लेकिन मिठाई को छूट देना समस्या का समाधान नहीं.
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