अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने टैरिफ पर धमकाना और उल्टी-फुल्टी बयानबाजियां क्या शुरू कीं, देश लामबंद होने लगे. पहले रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन अकेले दिख रहे हैं. अब उनके साथ चीन के लीडर शी जिनपिंग और उत्तर कोरियाई तानाशाह किम जोंग भी कदमताल कर रहे हैं. तीनों का दुश्मन एक है- अमेरिका. कम्युनिज्म की कड़ी भी तीनों को गूंथती है. तीनों ही परमाणु ताकत भी रखते हैं. कुल मिलाकर, मामला दूध में मेवे की तरह घुलामिला है. लेकिन कम्युनिज्म तो बीते दिनों की बात हो चुका, या अब भी इसका कोई रूप यहां बाकी है.
कम्युनिज्म आखिर है क्या बला
ये राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक सोच है जो मानती है कि सबके पास संसाधन बराबर होने चाहिए. कहानी शुरू होती है, 19वीं सदी के यूरोप से, जब औद्योगिक क्रांति आ चुकी थी. फैक्ट्रियों में मजदूर दिन-रात काम करते, लेकिन तनख्वाह इतनी कम थी कि पेट भरना मुश्किल था. अमीर और गरीब के बीच खाई चौड़ी होती गई.
तभी एक सोच आई. कारखानों से लेकर आय के सारे साधन-संसाधनों पर सबका हक हो. कुछ भी किसी एक का न हो. यूरोप से पनपा ये विचार आगे फैला और साल 1917 में रूस (तब सोवियत संघ) में हुई क्रांति ने इस सोच को हकीकत बना दिया. रूस आधिकारिक तौर पर दुनिया का पहला कम्युनिस्ट मुल्क बन गया.
कैसे फैला बाकी संसार में
दूसरे विश्व युद्ध के बाद यहीं से कम्युनिज्म फैलने लगा. चीन से लेकर लाओस, क्यूबा और वियतनाम में भी सेंध लगी. फिर युद्ध के बाद का दौर आया. शक और डर से भरे इस वक्त में दुनिया दो खेमों में बंट गई. एक तरफ था अमेरिका का पूंजीवाद और दूसरी तरफ रूस का कम्युनिज्म. दोनों ही मजबूत देश थे और बाकियों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रहे थे. चीन तब रूस के काफी करीब हुआ करता था. हालांकि वक्त के साथ दोनों के नेता टकराने लगे.
टकराव से शुरू हुआ बदलाव
पचास के दशक तक बीजिंग ने मॉस्को से संबंध बिगाड़ लिए. यहां तक कि वो रूस को ‘अमेरिका जैसा खतरनाक’ कहने लगा. दोनों देशों के बीच सीमा विवाद भी शुरू हो गया. वे आपस में भिड़ने लगे. इसी बीच सोवियत संघ टूटकर रूस बना. इसके साथ रूस की आइडियोलॉजी बदल गई. उसे समझ आया कि अमेरिका नाम की महाशक्ति से टक्कर लेनी है तो पुराना चोला छोड़ना होगा.
वो बाजार के हिसाब से सोचने लगा. निजी कंपनियां आईं. अरबपति ओलिगार्क्स पैदा हुए. और आखिरकार राजनीति में भी कम्युनिस्ट पार्टी का दबदबा खत्म हो गया. इसके साथ ही ये विचारधारा रूस में खत्म लगने लगी. लेकिन नहीं. ये दबी हुई चिंगारी है, जो रह-रहकर भड़क जाती है. जैसे यहां लेनिन की लगभग साढ़े पांच हजार मूर्तियां हैं, जो बीते दौर को जिंदा रखे हुए हैं.
चीन में पॉलिटिकल लीडरशिप कम्युनिस्ट
चीन आज दुनिया का सबसे बड़ा कम्युनिस्ट देश माना जाता है. वहां कम्युनिस्ट पार्टी ही सत्ता में है. लेकिन वहां का मॉडल अब पारंपरिक कम्युनिज्म नहीं है. सत्तर के दशक की शुरुआत में वहां इकनॉमिक सुधार हुए. प्राइवेट बिजनेस बढ़े और विदेशी निवेश बढ़ा. अब वहां कॉरपोरेट्स हैं, जो कम्युनिस्ट सोच से बिल्कुल उलट है. लेकिन राजनीतिक तौर पर देखें तो बीजिंग में पार्टी का कंट्रोल काफी मजबूत है. आप सरकार पर सवाल नहीं उठा सकते, उतने खुले तौर पर इलेक्शन नहीं हो सकते, लेकिन हां, बिजनेस कर सकते हैं. इसे ही कम्युनिज्म विद चाइनीज कैरेक्टर कहा जाता है. यानी सिस्टम हाइब्रिड हो चुका.

उत्तर कोरिया में कैसी स्थिति
तुलना करें तो उत्तर कोरिया फिलहाल कम्युनिज्म का सबसे मजबूत किला माना जा सकता है. वहां इसे जुचे के नाम से जाना जाता है. लेकिन प्योरिटी यहां भी नहीं. कम्युनिज्म रिर्सोसेज को सबसे बराबरी से बांटने की बात करता है लेकिन यहां भी सोशल क्लास है.
एक तरफ तानाशाही परिवार और उससे जुड़े लोग हैं, जो बेहद अमीर हैं. उन्हें ही राजधानी में बसने और बड़ी नौकरियां पाने का हक है. दूसरी तरफ आम कोरियाई हैं, जिनके पास बेसिक सुविधाएं तक नहीं. तानाशाही और पर्सनैलिटी कल्ट की वजह से यहां से खबरें काफी मुश्किल से आ पाती हैं लेकिन सुनी-सुनाई यही कि भले ही यहां प्राइवेट बिजनेस नहीं, बल्कि सब कुछ स्टेट के नियंत्रण में है. इसके बाद भी बराबरी यहां भी नहीं.
तमाम कमी-बेसी के बावजूद ये भी सच है कि तीनों ही देशों में एंटी-अमेरिका सेंटिमेंट्स हैं. आम लोग भले न सोचें, लेकिन पॉलिटिकल लीडरशिप मानती है कि यूएस सारी मुसीबत की जड़ है और उसे कमजोर पड़ना चाहिए. यही वजह है कि ट्रंप के उलजुलूल फैसलों के बीच तीनों देश फिर एक साथ नजर आने लगे. हाल में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि चीन कभी किसी दबंग के असर में नहीं आया. इस दौरान पुतिन और जोंग भी मौजूद थे. यही तस्वीर है, जो कम्युनिज्म की तरफ इशारा कर रही है.
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