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    श्रीकृष्ण जिन मंदिरों में पत्नियों के साथ पूजे जाते हैं वहां भी गूंजता है राधे-राधे, कैसे लोकदेवी बन गईं राधा

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    जिस तरह श्रीकृष्ण जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव है, ठीक उसी तरह राधा अष्टमी देवी राधा के जन्म का दिवस है लेकिन आज भी इसमें उत्सव की वह धूमधाम नहीं दिखाई देती है, जो जन्माष्टमी को लेकर है. हालांकि बीते दशक में अब इस दिन भी खास उत्सव आदि होने लगे हैं, लेकिन यह मंदिरों और वैष्णव संप्रदाय के मानने वालों तक सीमित है. या फिर लड्डू गोपाल को लेकर जिस तरह की भक्ति का क्रेज इधर एक दशक में बढ़ा है, तो राधा अष्टमी भी अब एक याद रखने वाला और पंचांगों में देखकर व्रत किया जाने वाला दिन बन गया है. हालांकि पहले भी जो वास्तविक श्रद्धालु थे वह जन्माष्टमी और राधा अष्टमी दोनों ही उत्सव अपनी सादगी वाली व्रत परंपरा के साथ मनाते रहे हैं.

    प्राचीन मंदिरों में नहीं हैं राधा की प्रतिमाएं
    श्रीकृष्ण की पूरी गाथा में राधा एक ऐसा चरित्र हैं, जिनके बिना श्रीकृष्ण को सोच पाना भी असंभव है. फिर भी, क्या वजह रही कि देश के कई बड़े मंदिरों में श्रीकृ्ष्ण बिना उनके ही विराजमान हैं. कई प्रसिद्ध कृष्ण मंदिरों में राधा की प्रतिमा स्थापित नहीं है. जैसे जगन्नाथ पुरी में श्रीकृष्ण अपने भाई-बहन के साथ हैं.

    केरल के गुरुवायुर मंदिर में भी श्रीकृष्ण की बाल छवि ही मौजूद है और वह अकेले ही हैं. दिल्ली में भी इस प्रसिद्ध मंदिर की प्रतिकृति है जहां बाल कृष्ण की एकल प्रतिमा है. इसके अलावा मंदिर परिसर में शिव, गणेश, भगवती पराम्बा (देवी दुर्गा का विराट स्वरूप) और अयप्पा के भी मंदिर हैं लेकिन राधारानी की प्रतिमा नहीं है. तिरुपति में श्रीकृष्ण अपनी पत्नियों के साथ हैं, जो उनसे विवाहित हैं. पंढरपुर और द्वारका में वह देवी रुक्मिणी के साथ विराजित हैं. 

    नाथ संप्रदाय के मंदिरों में भी श्रीकृष्ण या तो गिरधारी छवि में पूजित हैं, या गोचारण करते वंशी बजाते ग्वाले श्रीकृष्ण के रूप में. राधा यहां भी नहीं हैं. फिर भी राजस्थान (जयपुर-उदयपुर) के मंदिरों में गाए जाने वाले भजनों में राधा का जिक्र सुनाई देता है. 

    पुराणों में कैसा है राधा का जिक्र
    ब्रह्मवैवर्त पुराण को छोड़ दें तो राधा को लेकर बहुत बड़ा जिक्र अन्य किसी वैष्णव पुराण में नहीं मिलता है. महाभारत की कथा वैसे भी कौरव-पांडव के पारिवारिक युद्ध पर केंद्रित है, लेकिन उसमें भी श्रीकृष्ण का चरित्र इतना विराट है कि वहां उनकी प्रेमी वाली छवि बहुत नहीं मिलती है. वहां नजर आती है तो केवल चतुराई और नीति से भरा युद्ध कौशल. 

    इसके बाद महाभारत के परिशिष्ट के तौर पर एक और ग्रंथ रचा गया जिसे हरिवंश पुराण कहा गया और इसमें भी श्रीकृष्ण जन्म और बचपन के संघर्ष के बाद बतौर राजा उनका जीवन कैसा रहा वे सभी घटनाएं दर्ज हैं. इसमें भी राधा का वर्णन नहीं आता है. श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने वाले ग्रंथ, भागवत कथा जिनमें उनकी रास लीलाओं का वर्णन है वहां भी राधिका का विशेष उल्लेख नहीं है, लेकिन कई पद ऐसे हैं, जहां ये संकेत होता है कि इस जगह किसी विशेष गोपी की बात हो रही है. 

    भागवत में स्पष्ट जिक्र नहीं, लेकिन राधा की मौजूदगी का अनुमान
    जैसे भ्रमरगीत की शुरुआत में लिखा होता है कि ‘गोप्य: उचु:’ इसका अर्थ है गोपियों के समूह ने कहा. लेकिन गोपिका गीत में लिखा आता है, गोप्य उवाच, यानी गोपी ने कहा, यहां एक वचन है. गोपिका गीत में जिस स्तर के प्रेम और विरह का वर्णन है, विद्वान लोग मानते हैं कि भागवत पुराण में यहां संकेत रूप में ‘राधा रानी’ की ही बात हो रही है. 

    वैसे भी जिस तरह संसार में दिन है तो रात है. सूर्य है तो चंद्र भी है. इसी तरह सामर्थ्य है तो प्रेम भी भी होना जरूरी है. श्रीकृष्ण अगर महानायक हैं तो श्रीराधा महानायिका हैं और लोक ने उन्हें इसी तरह सहज रूप में स्वीकार किया है. 

    राधा का प्रेम सिर्फ भावना नहीं क्रांति भी है

    धार्मिक विषयों के प्रसिद्ध जानकार देवदत्त पटनायक देवी राधा से जुड़े अपने लेख में बताते हैं कि दसवीं सदी के आसपास प्राकृत साहित्य में राधा का उल्लेख काफी हुआ और उन्हें कृष्ण की प्रेमिका के तौर पर ही देखा गया. इस साहित्य में रचे गए पदों में कृष्ण बहुत दैवीय नहीं हैं, बल्कि सामान्य ग्वाल बाल जैसे ही हैं, लेकिन अद्भुत सामर्थ्य के कारण ग्रामवासियों के नायक हैं. इन गीतों में बहुत कामुकता नहीं है, बल्कि एक भोला-भालापन है. निश्छल भावना है और यही भावना इस प्रेम के उठान का आधार है. राधा कभी पत्नी नहीं हैं, और इसी वियोग से जो भाव उठे वही राधा-कृष्ण के प्रेम की खासियत बन गए. 

    तमिल साहित्य से उत्तर भारतीय समाज तक
    इसी तरह तमिल महाकाव्य शिलप्पदिकारम में एक स्त्री चरित्र का जिक्र आता है, जिसका नाम पिन्नई है. पिन्नई को तमिल समाज आदिम राधा के तौर पर जानता है, क्योंकि पिन्नई जिससे प्रेम करती है वह मल नाम का एक ग्वाला है और मल कृष्ण का ही एक नाम है. तमिल में मल्लेश्वरी नाम यहीं से आता है, जिसका अर्थ है स्वामिनी. संभव है कि तमिल की यही नाम व्याख्या समय-समय पर बदलते हुए ग्वालिन राधा को देवी राधा बना गया हो, क्योंकि भाव की प्रधानता बहुत बड़ी है. 

    12वीं सदी में जब जयदेव गीत-गोविंद की रचना कर रहे थे उससे पहले ही उत्तर भारत में यह ग्वालिन के प्रेम का प्रभाव उच्च स्तर पर फैल चुका था. इस विचार को गीत-गोविंद ने और भी अधिक शृंगार और भक्ति के मिले-जुले रस में भिगो दिया और जल्दी ही यह सारे भारत में फैल गया. गीत गोविंद की की रचना जयदेव ने अष्टपदी में की, जिसमें हर एक गीत आठ श्लोकों से बनी है. इस तरह 24 अष्टपदी का एक अध्याय बना और 12 अध्याय में गीत गोविंद की रचना पूर्ण हुई है.

    जयदेव से प्रेरित होकर, 14वीं और 15वीं शताब्दी में, विद्यापति और चंडीदास जैसे कवियों ने राधा और कृष्ण के प्रेम का विस्तार किया. खास बात है कि इन कवियों ने राधा को एक विवाहित स्त्री के तौर पर देखा, जो प्रेम के लिए समर्पित पहली क्रांति के तौर पर सामने आती है. क्योंकि यह समाज की बनाई हुई वर्जनाओं को तोड़ती है. 

    Radha Ashtami

    राधा के विवाह की भी मान्यता

    कई कथाएं बताती हैं कि राधा का विवाह किसी अयन नाम के एक ग्वाले के साथ हुआ था, लेकिन उन्होंने कृष्ण के प्रति भक्ति दिखाई और समर्पण भी रखा. उनके प्रेम को निर्दोष बताते हुए राधा की भावना को ऊंचाई दी गई. राधा की सास और ननद के तौर पर लोककथाओं में जटिला और कुटिला नाम आता है. जो नाम के अनुसार ही राधा को कष्ट देती थीं, लेकिन राधा ने कृष्ण के प्रति प्रेम नहीं छोड़ा. इस तरह इस भाव-भक्ति ने राधा रानी को भले ही कुछ बड़े प्राचीन मंदिरों में जगह नहीं दी, लेकिन उन्हें कृ्ष्ण प्रेमी भक्तों के हृदय में श्रीकृष्ण से भी बड़ा दर्जा दिया. इस तरह राधा को लोक ने मुक्ति के तौर पर देखा और इसी मोक्ष-मुक्ति की भावना ने पहले ग्वालिन राधा को देवी बनाया और फिर उन्हें ईश्वर का दर्जा दिया. ईश्वर वही है जिसे लोक ने ईश्वर माना. इसलिए राधा पौराणिक न होते हुए भी परमेश्वरी हैं. 

    …और लोक देवी बन गईं राधा
    इस तरह समय की धारा के साथ राधा के स्वरूप में देवत्व के दर्शन होने लगे. राधा स्वयं एक देवी बन गईं. लोकदेवी और ऐसी प्रभावी कि उनके बिना, कृष्ण अधूरे थे. राधा वह जरिया बन गईं, जिससे निराकार ब्रह्म को कृष्ण के रूप में साकार किया जा सकता है. राधा आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक हैं. वह हृदय की गहराई में छिपे प्रेम, अधूरी लालसाओं और सामाजिक वास्तविकताओं के साथ जीवन की विकटताओं के संघर्ष का नाम हैं. वह अपने श्रीकृष्ण को पुकारती हैं और श्रीकृष्ण के भक्त उन्हें. 

    देखिए, कितना सुंदर उदाहरण है कि जिन मंदिरों के गर्भगृह में श्रीकृष्ण अपनी विवाहित पत्नियों के साथ पूजे जा रहे हैं, वहां दर्शनों के लिए कतार में खड़ी भीड़ ‘राधे-राधे श्याम मिला दे’ की पुकार लगा रही है. 

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