ऐसे समय में जब देश में हिंदू राजनीति अपने चरमोत्कर्ष की ओर जा रही हो, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत का मंगलवार को दिया गया भाषण महत्वपूर्ण हो जाता है. भागवत कहते हैं कि हिंदू राष्ट्र शब्द का सत्ता से कोई मतलब नहीं है. भाजपा सरकार पर विपक्ष लगातार आरोप लगाता रहा है कि वह इस विचारधारा को सत्ता पाने और उसमें बने रहने के औजार के रूप में इस्तेमाल करती है.
आम तौर पर यह माना जाता रहा है कि संघ बीजेपी को समय समय पर बौद्धिक खुराक देता रहा है. अपने तमाम मतभेदों के बावजूद संघ और बीजेपी एक बिंदु पर जाकर एक हो जाते हैं. जाहिर है कि भागवत का कथन सिर्फ शब्दों का खेल नहीं है, बल्कि संघ की मूल वैचारिक धारा को तो व्यक्त करता ही है देश में सत्तासीन बीजेपी सरकार के लिए एक दिशा का निर्धारण भी करता है. पर सवाल यह है कि संघ प्रमुख के इस बयान के मायने क्या हैं? क्या यह सीधे -सीधे बीजेपी नेताओं को संदेश देता है?
राजनीतिक संतुलन साधने की कोशिश
भागवत का यह ताज़ा बयान ऐसे समय में आया है जब विपक्ष भाजपा पर लगातार यह आरोप लगा रहा है कि वह बहुसंख्यकवाद और ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे रही है. भाजपा लगातार दूसरी बार केंद्र में सत्तासीन है और कई राज्यों में भी उसके हाथ में ताकत है. ऐसे में संघ प्रमुख का यह कहना कि हिंदू राष्ट्र का अर्थ सत्ता से नहीं है, एक राजनीतिक संतुलन साधने की कोशिश के रूप में भी देखा जा सकता है. इसके साथ ही इस तरह भी देखा जा सकता है कि संघ अब बीजेपी को हिंदू राष्ट्र के मुद्दे को थोड़ा नरम करके चलने का संकेत देना चाहता हो.
आरएसएस अपनी स्थापना के शुरुआती दिनों से ही हिंदू राष्ट्र की बात पर मुखर रहा है. गोलवलकर, जिन्हें गुरुजी कहा जाता है ने इसे परिभाषित करते हुए कहा था कि भारत की आत्मा हिंदू है और यहां की संस्कृति की जड़ें हिंदुत्व से निकली हैं. संघ का शुरू से ही मानना रहा है कि हिंदू शब्द सिर्फ धार्मिक नहीं है. इसमें सभ्यता, परंपरा, जीवनशैली और सामाजिक मूल्य सभी शामिल हैं. यही कारण है कि संघ हमेशा कहता रहा कि मुसलमान, ईसाई, पारसी या अन्य धार्मिक समूह भी इस राष्ट्र के उतने ही हिस्से हैं, जितने हिंदू.
संघ अपनी पुरानी लाइन पर] बीजेपी के लिए इस बयान की टाइमिंग महत्वपूर्ण
इसलिए यह बिल्कुल सीधा और साफ है कि भागवत का बयान संघ की पुरानी लाइन को ही दोहराता हैृ.चूंकि आरएसएस सीधे सत्ता की राजनीति में शामिल नहीं होता. संघ की असली ताकत समाज-निर्माण, शिक्षा, सेवा और सांस्कृतिक कार्य में है. इसलिए संघ प्रमुख के इस बात में कुछ भी नया नहीं है कि हिंदू राष्ट्र का लक्ष्य संसद में बहुमत पाना नहीं है, बल्कि समाज को ऐसा बनाना है जिसमें नैतिकता, समरसता और सांस्कृतिक एकता हो. हां लेकिन उनकी इस बात की टाइमिंग महत्वपूर्ण है. यह हो सकता है कि संघ प्रमुख बीजेपी के लिए कोई सीमा रेखा खींच रहे हैं या अल्पसंख्यकों को कोई संदेश दे रहे हों.
अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर बीजेपी से नरम रुख चाहता है संघ
दरअसल भारत में हिंदू राष्ट्र का सीधा संबंध अक्सर मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना से लिया जाता है. विपक्ष इसे बहुसंख्यकवादी एजेंडा मानता है. यही कारण रहा है कि कांग्रेस नेताओं के मुंह से बीजेपी के बजाय आरएसएस के लिए ज्यादा अपशब्द निकलता रहा है. शायद यही कारण है कि भागवत कहते हैं कि हिंदू राष्ट्र का सत्ता से कोई संबंध नहीं है तो यह संदेश जाता है कि संघ का उद्देश्य किसी पर वर्चस्व थोपना नहीं है. बल्कि यह अवधारणा सबको साथ लेकर चलने वाली सांस्कृतिक पहचान की है.
जरूरी बात यह है कि संघ यह बात बार-बार क्यों दुहरा रहा है. कहीं यह बीजेपी को अगले विधानसभा चुनावों के लिए इशारा तो नहीं है . क्योंकि भारतीय जनता पार्टी बिहार और बंगाल विधानसभा चुनावों में डेमोग्रेफी चेंज और मतदाता सूची पुनरीक्षण को लेकर अल्पसंख्यकों पर लगातार जुबानी हमले कर रही है. हो सकता है कि संघ यह चाहता हो कि बीजेपी को अपने रुख में थोड़ी नरमी लानी चाहिए.
बेरोजगारी जैसे बुनियादी मुद्दों पर भी फोकस जरूरी
भागवत का बयान भाजपा को अप्रत्यक्ष रूप से यह याद दिलाता है कि संघ की दृष्टि सत्ता से आगे है. भाजपा हिंदू राष्ट्र को राजनीतिक नारे के रूप में इस्तेमाल सत्ता हासिल करने के लिए कर सकती है. भागवत का यह बयान केवल वैचारिक नहीं बल्कि जमीनी राजनीति से भी जुड़ा हो सकता है .क्योंकि बार-बार यह सवाल उठ रहा है कि देश में बेरोजगारी, किसान संकट जैसे मुद्दे हिंदू-मुसलमान की राजनीति के चलते गौण हो गए हैं. संघ शायद यह संदेश देना चाहता है कि हिंदू राष्ट्र का अर्थ इन समस्याओं से मुंह मोड़ना नहीं बल्कि इन्हें समाज-आधारित समाधान देना है.
भागवत के इस उपदेश का भविष्य में ये असर हो सकता है.
-भाजपा-विरोधी दलों का आरोप कमजोर हो सकता है कि हिंदू राष्ट्र सिर्फ सत्ता हथियाने का औजार है.
-भाजपा को अपनी भाषा और नीतियों में “समावेशिता” दिखानी पड़ सकती है.
-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश भी जाएगा कि भारत का राष्ट्रवाद अधिनायकवादी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और समावेशी है.
-भागवत का कहना है कि स्वाभाविक धर्म समन्वय है संघर्ष नहीं है. इससे कम से कम हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन धर्म में तो समन्वय दिखाई ही देगा. राष्ट्रवादी मुसलमानों में भी हिंदू धर्म के साथ समन्वयव की उम्मीद जगेगी.
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