More
    HomeHomeGround Report: दर्दिस्तान...गुरेज में बसा कश्मीर का इलाका, उसका अनसुना ‘दर्द’ और...

    Ground Report: दर्दिस्तान…गुरेज में बसा कश्मीर का इलाका, उसका अनसुना ‘दर्द’ और भुला दी गई दास्तान!

    Published on

    spot_img


    श्रीनगर से करीब 140 किलोमीटर दूर उत्तर की तरफ एक घाटी है. गुरेज. बीचोंबीच किशनगंगा नदी जो पाकिस्तान जाकर नीलम हो जाती है. लाइन ऑफ कंट्रोल के बेहद करीब बसा ये इलाका दर्दिस्तान भी कहलाता रहा. दर्द ट्राइब का घर. संवेदनशील हिस्सा होने की वजह से यहां दशकों तक आवाजाही बंद रही. बची-खुची कसर पूरी कर दी छमाही पड़ती बर्फ ने. ये समुदाय लंबे वक्त तक दुनिया से कटा रहा. 

    अब बंदिशें हट चुकीं. ग्लोबल वार्मिंग ने बर्फीले सुरक्षा कवच को भी कमजोर कर दिया. आवाजाही बढ़ रही है लेकिन साथ ही भूली कहानियों जितनी पुरानी इस सभ्यता पर खत्म होने का खतरा भी बढ़ चुका है.

    aajtak.in ने उत्तरी कश्मीर की गुरेज घाटी समेत LoC के करीब बसे आखिरी गांव चकवाली तक की यात्रा की, और शिना समुदाय के साथ एक दिन गुजारा.

    श्रीनगर से आगे बढ़ते हुए बांदीपोरा जिला आएगा. सपाट सड़कें यहां से तीखे और छोटे मोड़ वाले पहाड़ी रास्तों में बदल जाएंगी. जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, गाड़ियां कम होती हुईं. उनकी जगह चरवाहे-भेड़ें और घास का गट्ठर लिए लौटती महिलाएं फ्रेम में आती हुईं. निश्चित दूरी पर चेक पोस्ट बने हुए, जो पूरी तसल्ली के बाद ही आगे जाने देते हैं.

    लगभग छह घंटे बाद हम गुरेज सब-डिवीजन के हेडक्वार्टर दावर में हैं. यहां डाक बंगले में बैठकर आगे जाने का प्लान पक्का होता है. सैन्य इजाजत ली जाती है. अगली सुबह आगे की यात्रा शुरू.

    श्रीनगर से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दूर गुरेज में कश्मीर के बाकी हिस्सों से अलग संस्कृति है.

    हम घाटी से नीचे की तरफ गुरेज सब-डिवीजन के तहत आने वाले तुलैल ब्लॉक की तरफ बढ़ते हैं. पूरी घाटी की आबादी बमुश्किल चालीस हजार. छिटके हुए लकड़ी के घर, जिनमें बुजुर्ग या नए युवा जोड़े रहते हैं, जो बाहर बसना अफोर्ड न कर सकते हों. ज्यादातर घर दो मंजिला. नीचे की तरफ मवेशी और ऊपर परिवार बसे हुए. 

    ‘सर्दियों में सब जम जाता है, तब भेड़-बकरियों का साथ गर्मी देता है.’ भेड़ की ऊन से बना चूगा (ओवरकोट) पहने गुलाम मोहम्मद बताते हैं.
    गुलाम आसपास के इलाके में सबसे बुजुर्ग शख्स हैं. लगभग 105 साल के. गांववाले भी इस बात की तस्दीक करते हैं. ‘बंटवारे से काफी पहले की इनकी पैदाइश है. कबीलाई हमले की तो इन्हें सारी कहानी याद है. कुछ जोर-आजमाइश भी की थी.’

    कबीलाई हमला! चिकनी-सतर देह पर फफोले की उभरी ये याद हर पुराने दिल पर दिखेगी.

    साठ-सत्तर की उम्र जी चुके लगभग सभी ने उस हमले की बात दोहराई. दरअसल गुरेज घाटी कश्मीर के उस किनारे पर बसी है, जहां से जरा आगे बढ़ो तो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) की हद शुरू हो जाएगी. घाटी एक वक्त पर कश्मीर को मध्य एशिया से जोड़ने वाला दर्रा हुआ करती थी. लेकिन साल 1947 के बाद बहुत कुछ बदल गया. 

    बंटवारे के कुछ महीने बाद पाकिस्तान से कबीलाई लड़ाके बड़ी संख्या में गिलगित-बाल्टिस्तान से लगती गुरेज घाटी में पहुंचे. कुछ बारामूला और उरी की तरफ बढ़ गए, जबकि बहुत से यहीं कत्लेआम मचाने लगे. रास्ते में पड़ने वाले गांव के गांव जला दिए गए. महिलाओं से गैंग रेप हुआ. बच्चे मार दिए गए. ये वही लोग थे, जिनसे कभी गुरेजियों का रोटी-बेटी का रिश्ता हुआ करता. 

    gurez valley jammu kashmir
    पहाड़ों के पार पाकिस्तान का कुछ हिस्सा दिखाई देता है. 

    तमाम बहादुरी के साथ भी घाटी के लोग एकाएक हुए इस हमले के लिए तैयार नहीं थे. हफ्तों चली मारकाट के बाद आखिरकार भारतीय सेना के दखल से कबायली बाहर निकाल फेंके गए. इसके बाद से दर्द आबादी और आर्मी मिलकर काम करने लगे. 

    ये साथ अब भी दिखता है.

    गुलाम के किस्सों से लेकर गुरेज की गलियों में आर्मी वाले जहां-तहां दिख जाएंगे. गाइड की तरह हमारा साथ देता एक सैनिक मौका पाते ही कहता है- यहां की घाटी कश्मीर से अलग है. ये लोग गुरेजी हैं, कश्मीरी नहीं. यहां कोई भी नया चेहरा दिखे, लोग तुरंत अपने करीबी चेकपोस्ट को खबर देते हैं. यही वजह है कि LoC के इतने पास होने के बाद भी यहां न कभी कोई मिलिटेंट बना, न ही इस रास्ते से बाहरी लोग घुसपैठ कर सके.

    सैनिक की आवाज में घर के सबसे सुरक्षित कोने में बसा होने का भाव.

    उन्हीं के मदद से हम गुलाम मोहम्मद के घर तक पहुंचे. घर के दरवाजे खुले हुए. खटखटाने पर कुछ देर तक कोई आवाज नहीं आती. फिर सौ-साला यही शख्स बाहर आकर माफी मांगते हुए कहता है- नमाज पढ़ रहा था. आपको इंतजार करना पड़ा, बताइए, इसकी भरपाई कैसे करूं!

    gurez valley jammu kashmir
    गुलाम मोहम्मद फोन को बिगाड़ की असल वजह मानते हैं.

    सधी हुई उर्दू में बात करते हुए गुलाम हमें अपनी बैठक में ले जाते हैं. भेड़ की ऊन से बनी दरी के किनारे-किनारे कुशन. एक कोने पर लोहे का चूल्हा बना हुआ, जिसे लोकल भाषा में बुकारी कहते हैं, जो सर्दी में कमरे को गर्म रख सके.

    नून चाय (नमक वाली चाय) की मनुहार के बाद बात शुरू होती है. गुलाम मेरे मोबाइल की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं- हालात खराब हैं. ये जो तुम लिए बैठी हो, इनसे (फोन से) खराबी होती है. बच्चे काम नहीं करते. मोबाइल थामे रहते हैं. जमींदारी (खेती-बाड़ी) छोड़ चुके. हमारा जमाना ठीक था. जमींदारी करते और घर में बैठ रहते. अब तो जंग का खतरा भी बढ़ चुका है. दिन से दिन बीत रहे हैं, सरकारें भी कितना कर पाएंगी!

    उजले दिन की कोई भी झलक गुलाम की बातों में नहीं दिखती.

    बढ़िया हिंदी बोलता ये शख्स लगातार बे-इत्मिनानी जताता है. नई पीढ़ी से. नए अंदाज से और बीती-बनी सरकारों से.

    हमारे जमाने में न घड़ियां थीं, न रेडियो. फिर भी वक्त बीत जाता. अब बात अलग है. लड़के परेशान रहते हैं कि मोबाइल में सिग्नल नहीं. मौका मिलते ही वे कश्मीर में बस जाते हैं. 

    लेकिन ये भी तो कश्मीर ही है! 

    है तो, मगर हम गुरेजी हैं. कश्मीरियों की बोली और हमारी जबान अलग है. वहां इतनी बर्फ नहीं पड़ती. और भी कई फर्क हैं. हम अलग हैं उनसे. 

    gurez valley jammu kashmir
    देवदारी लकड़ी के मकान मौसम के मुताबिक तापमान बदल लेते हैं. 

    दर्द शिना ट्राइब बार-बार खुद को कश्मीर से अलग बताती है. फिर चाहे वो बुजुर्ग हो, या नई पीढ़ी.

    इस दूरी की भी वजह है. कश्मीरी होने के बावजूद विकास से लेकर मुख्यधारा में गुरेजियों को उतनी जगह, उतनी इज्जत नहीं मिल सकी, बल्कि उन्हें नजरअंदाज किया जाता रहा. यहां गांवों तक जाने वाली सड़कें और छुटपुट अस्पताल भी हाल-हाल में शुरू हो सके. गुरेजी लोग कमाने-खाने के लिए श्रीनगर चले जाएं तो यहां भी उन्हें वहीं ठंडापन मिलता है. 

    गांव में ही एक छोटे कमरे में दुकान चला रहा युवक जोर देता है- ‘हमारा उनसे कोई लेना-देना नहीं. वे जितनी गर्म जगह पर रहते हैं, दिलों से उतने ही ठंडे हैं. आप श्रीनगर जाइए, कोई आपसे हालचाल तक नहीं पूछेगा. यहां गरीब के घर पर पानी न हो, लेकिन वो खाने की मनुहार जरूर करेगा. चाहे पीछे के दरवाजे से जाकर पड़ोसी से मांगकर ही क्यों न लाना पड़े.’ 

    बात सही भी थी. अलसुबह से देर दोपहर तक के सफर में लगभग हर घर हमें चाय-खाना ऑफर कर चुका था.

    जब हम सीमा के आखिरी गांव चकवाली पहुंचे, दोपहर बीत रही थी. अधिकतर घरों की महिलाएं घास काटने या सर्दियों के लिए लकड़ी जमा करने के लिए जंगलों की तरफ गई हुईं. मकानों में या तो बुजुर्ग बाकी थे, या नई मांएं. 

    ऐसी ही एक महिला हमें अपनी रसोई में बुलाती है. वे चप शूरो पका रही थीं. एक तरह की भरवां रोटी, जिसमें मांस, मसाले और कई तरह के हर्ब्स डले होते हैं. बाद में उसे तवा या तंदूर पर पकाया जाता है. बाजू के चूल्हे पर आलू उबल रहा था. 

    पहचान छिपाने की शर्त पर महिला बात करने के लिए राजी दिखी. बेहद सरल अंदाज में वे कहती हैं- चेहरा दिख गया तो पति मारेगा. वो गुस्से का कुछ तेज है. 

    gurez valley jammu kashmir
    शबनम नई पीढ़ी की मां हैं, जो हर हाल में गुरेज से निकलना चाहती हैं. 

    हाथ में मायके से तोहफे में मिली सुनहरी घड़ी बांधे शबनम एक हाथ से तीन महीने की बच्ची को थपक रही थीं, दूसरे से खाना बना रही थीं. 

    अपनी डिश को एक्सप्लेन करते हुए वे कहती हैं- वैली में ये खाना हर घर में बनता है. मांस, प्याज-लहसुन और जंगलों में मिलने वाली बूटियों से बना पराठा भूख तो जगाता ही है, साथ ही हल्का बुखार या सर्दी भी ठीक कर देता है. बाहर की परत कुरकुरी होती है, जबकि अंदर कीमा मुंह में घुल जाता है. आप भी खाकर देखें…! 

    मांस नहीं खाने की बात जानकर हंसते हुए कहती हैं- यहां इतनी बर्फ रहती है. हम मांस न खाएं तो मांस गल जाएगा. ठंड में ताजा मीट नहीं मिल पाता तो हम पहले से ही उन्हें सन-ड्राई करके प्रिजर्व कर लेते हैं. 

    बातचीत में अंग्रेजी शब्द इस्तेमाल कर रही शबनम पढ़ी-लिखी हैं. और नाखुश भी. वे रसोई से अलग दुनिया चाहती हैं. 

    पूरा खाना बनाने में आपको कितना वक्त लगता है?

    एक वक्त के खाने में दो घंटा, या कई बार इससे ज्यादा भी. हमारा परिवार उतना बड़ा नहीं. रसोई दो हो चुकी तो काम भी बंट जाता है. लेकिन सर्दियों में पूरा दिन चूल्हे के आगे बीतता है. पानी गर्म करना. कमरे में आग जलाना. हर कुछ देर में चाय बनाना. बच्चे या बूढ़े हों तो घर हर वक्त गर्म रखना. 

    gurez valley jammu kashmir
    सर्दियों में गुरेजी रसोई चौबीसों घंटे चालू रहती है. 

    दरअसल हर साल नवंबर से अप्रैल के आखिर तक पूरा गुरेज बर्फ की मोटी परत के नीचे सांस लेता है. न भीतर कोई आ सकता है, न बाहर कोई जा सकता है. माइनस 20 डिग्री सेल्सियस वाले इलाके में पीने के पानी की सरकारी व्यवस्था कम ही जगह दिखेगी. लोग चश्मों (स्प्रिंग) से पानी लाते हैं. ठंड के लिए पानी पहले से ही स्टोर किया जाता और पिघलाकर पिया जाता है. 

    मिट्टी के चूल्हों को थापते हुए हम गुरेजी औरतें भी मिट्टी हो जाती हैं. बादामी आंखों वाली ये नई मां फुसफुसाती है.

    पास ही देवर बैठा हुआ, जिससे ये सावधानी बरती जा रही है. कुछ देर के लिए हमें अकेला छोड़ने की गुजारिश पर अनमने तरीके से किशोर देवर वहां से हटता है. 

    शबनम अब खुल चुकीं. वे कहती हैं- शादी हुई तो 40-50 किलो घास की गट्ठर रोज काटकर लाती. ये (बच्ची की तरफ देखते हुए) पेट में आई तो भी पति उखड़ने लगा. घर में एक ही औरत. अगर वो भी पेट लेकर बैठ जाए तो काम कौन करेगा. 

    क्यों! भारी काम घर के आदमी नहीं करते! 

    वे ज्यादा से ज्यादा जमींदारी (खेती का काम) कर लेते हैं. बाकी, घास काटना, लकड़ी लाना- सब औरतें के हिस्से है. छह महीने तक हम घर से बाहर नहीं निकल सकते. ऐसे में चूल्हे के लिए जलाऊ पहले से जमा करनी होती है. 

    छह महीनों तक हर औरत रोज 50 किलो वजन उठाकर कई किलोमीटर चलती है. पानी लाना और खाना पकाने जैसे काम अलग. बचे छह महीने घर में बंद रहकर मर्दों की धौंस सहती है. 

    मुझे ये जिंदगी नहीं चाहिए. जैसे-तैसे पति को मना रही हूं कि श्रीनगर जाकर रहें. देखते हैं, जो अल्लाह चाहे! आंखें- बिना खिड़की वाले कमरे के पार कहीं अटकी हुईं. शायद श्रीनगर में. या शायद घास उठाते हुए खत्म हो चुकी औरतों के दर्द में. 

    gurez valley jammu kashmir
    गुरेजी महिलाएं रोज लगभग 50 किलो घास और लकड़ी के गट्ठर की फेरी लगाती हैं. 

    अगले गांव की तरफ बढ़ते हुए मैं हल्की-सी शिकायत करती हूं. इसपर टोकता हुआ तर्क आता है- पहले शादियों में यही देखा जाता था कि लड़की कितना वजनी गट्ठर उठा पाती है. कमजोर लगी तो रिश्ता रद्द. अब उन्हें घास उठाने से शिकायत है! 

    सरल गुरेजी पुरुष जीने की यही रीत जानते हैं. 

    दुपट्टा सिर पर ढांपकर चलो… एक बुजुर्ग सलाह देता है. 

    अकेले घूमना पड़े, ऐसी क्या नौबत आ गई!  दूसरा पूछता है. 

    गांव से बाहर निकलते हुए हर बार हमारे साथ पुरुषों का एक झुंड चलता है, जो कोई न कोई टिप्पणी कर ही देता है. 

    वैली में कई जगहों पर आयुष्मान आरोग्य मंदिर की तख्ती लगी हुई. प्राइमरी हेल्थकेयर सेंटर की तर्ज पर बने ये क्लिनिक हाल में खुले हैं, जहां फैमिली प्लानिंग, प्रेग्नेंट महिलाओं की देखरेख से लेकर छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज होता है. 

    अक्सर ये सेंटर किसी घर के खाली कमरे में खोल दिया जाता है. छुटपुट दवाएं और फर्स्ट एड किट मिलेगी, लेकिन उसका इस्तेमाल क्या है, इसका अंदाजा घरमालिक को भी नहीं. 

    लंच के लिए सैन्य बेस पर ठहरने पर आरोग्य मंदिर का जिक्र निकलता है. इसपर एक सैन्य अधिकारी कहते हैं- हम ज्यादातर गांवों में हर महीने विजिट करते हैं. पीएचसी में दवाएं तो हैं, लेकिन उनका करना क्या है, ये बहुतों को नहीं पता. मैंने खुद आर्मी मेडिकल अफसरों की मदद से कई जगहों पर दवाओं पर पर्चियां लगवाईं. 

    लगभग चालीस हजार आबादी वाले गुरेज में दावर हेडक्वार्टर में एक छोटा अस्पताल मिलेगा. बड़ी दिक्कत होने पर लोग बांदीपुरा जाते हैं जहां सरकारी और प्राइवेट दोनों सुविधाएं हैं. सर्दियों में जब छह महीने सड़कें रुक जाती हैं, जब सैन्य मदद से चॉपर आते हैं. लेकिन मौसम खराब हुआ तो ये भी मुमकिन नहीं. ऐसी ही वजहों से गुरेज की युवा पीढ़ी घर से दूर हो रही है. 

    gurez valley jammu kashmir
    उबैद हब्बा खातून कल्चरल क्लब के सदस्य हैं, जो शिना संस्कृति बचाने पर काम करता है.

    दावर में रिजॉर्ट चला रहे उबैद कहते हैं- हम चाहते हैं कि हमारा कल्चर, हमारी पहचान बची रहे लेकिन यहां कई डर हैं. शेलिंग यूथ माइग्रेशन की एक बड़ी वजह है. LoC पर शेलिंग में कई कैजुअलिटीज हो चुकीं. हमारे घर-दुकान जल गए. कारगिल के बाद यहां ज्यादा बॉम्बिंग हुई. हमारे पास कोई ठिकाना नहीं था. न बंकर था, न कुछ और. किशनगंगा नदी से कभी हम इस तरफ भागते, कभी उस तरफ. आखिर में हम कांक्रीट की मस्जिद में छिपे. लेकिन वहां भी कितनों को शेल्टर मिलता. 

    बाद में हमने छोटे-छोटे बंकर बनाए जहां कम से कम जिंदा बच सकें. उबैद हमें एक बंकर भी दिखाते हैं. अस्पताल के ऐन बगल में बने इस बंकर में टेंपररी पार्टिशन है, जहां औरत-मर्द अलग-अलग रह सकें. वॉशरूम के लिए कोई स्पेस नहीं. 

    उबैद कहते हैं- नए बने बंकरों में लगभग सब कुछ है कि कुछ दिन गुजारा चल जाए. 

    दावर में हब्बा खातून नाम की मशहूर शायरा के नाम पर कल्चरल क्लब चला रहे उबैद की आवाज में मलाल की लुकाछिपी चलती रहती है. वे कहते हैं- बंटवारे से पहले हम गिलगित बाल्टिस्तान का हिस्सा थे. कह सकते हैं कि गुरेजियों की भाषा, रहन-सहन सब वहीं का था. अलगाव के बाद हम न यहां के रहे, न वहां के. अपना कोई पक्का सिस्टम न होने की वजह से हम बांदीपुरा और कश्मीर के बाकी हिस्सों से जुड़ने लगे. 

    इससे कल्चरल खिचड़ी बन गई. हम फेरन पहनने लगे. चावल खाने लगे. क्योंकि वे हमारी भाषा नहीं समझ पाते हैं, हम उर्दू बोलने लगे. 
    उम्मीद का सौंधापन हालांकि अब भी बाकी है. फिर चाहे वो गुरेज रेडियो स्टेशन हो, जहां दर्द शिना भाषा में सारे प्रोग्राम आते हैं, या फिर निजी स्तर पर चल रही कोशिशें हों.

    ऐसी ही एक कोशिश बशीर अहमद की है. मेडिकल लाइन से जुड़े इस शख्स ने अपने घर को ही म्यूजियम में बदल डाला. 

    उनके पास साढ़े चार सौ से ज्यादा आइटम हैं, जो शिना कल्चर की पहचान रह चुके. इनमें जूट और ऊन से बने कपड़े भी हैं, जंगली बूटियां भी, और तांबई गहने भी. 

    gurez valley jammu kashmir
    बशीर अहमद ने अपने घर को ही संग्रहालय में बदल डाला, जहां 400 से ज्यादा पुराने आइटम हैं. 

    बशीर याद करते हैं- साल 2019 में मां से बातचीत के दौरान मुझे अहसास हुआ कि मुझे तो उनकी जिंदगी के बारे में कुछ भी नहीं पता. मैं धीरे-धीरे गांव-गांव घूमने लगा और पुरानी चीजें जमा करने लगा. कितनी ही चीजें हैं, जिन्हें आज कोई इस्तेमाल नहीं करता, या करता भी है तो वो क्वालिटी नहीं. 

    सेल्फ-इंस्पायर्ड इस शख्स के पास हर्ब्स की वैरायटी है, जो बुखार से लेकर पथरी और शुगर को भी ठीक कर सकती है.

    वे कहते हैं- अभी जंगल जाऊं तो ऐसी 10 बूटियां लेता आऊंगा. अब भी मेरी तबियत ढीली हो, तो यही चीजें इस्तेमाल करता हूं, लेकिन नई पीढ़ी को ये सब्र नहीं, न ही ऐसा भरोसा है. 

    चकवाली से सटे अंगाईकोट गांव के रहवासी अब्दुल्लाहट बट कहते हैं- वो दौर मोहब्बत का था. हम बांदीपुरा से कई-कई दिन चलकर पैदल आते-जाते. न मजहब की बात होती थी, न रसूख की. सब एक-दूसरे की खैरियत लेते. ठंड में जब घूमना-फिरना बंद हो जाता तो घर ही हमारा मुल्क बन जाता. औरतें खाना पकातीं और मर्द सबके लिए कपड़े सिला करते. खाली वक्त में मिलकर गाते-गुनगुनाते भी.  
    क्या गुनगुनाते थे, कुछ सुना सकते हैं! 

    फरमाइश पर बट शिना भाषा में एक शेर सुनाते हैं, जिसका हिंदी तर्जुमा है-  जब बहार बीत जाती है, तब उसकी रंगत कुछ और ही होती है…! पहाड़ों को दिखाते हुए वे कहते हैं- जब ये भी बीत जाएगा तो खूब याद आएगा. 

    —- समाप्त —-



    Source link

    Latest articles

    Canada drops many retaliatory tariffs, seeks reset in trade talks with US

    Canada is easing the heat in its trade war with the US, announcing...

    Introducing Fall TV’s New Characters

    This fall, there’ll be tons of new characters joining your favorite series on...

    Jack Antonoff Releases Soundtrack to ‘Honey Don’t!,’ Starring His Wife Margaret Qualley

    Jack Antonoff today released the soundtrack for Ethan Coen’s Honey Don’t!, a dark...

    सर्जियो गोर होंगे भारत में अमेरिका के नए राजदूत, ट्रंप ने इस भूमिका के लिए अपने ‘विश्वासपात्र’ को ही क्यों चुना?

    डोनाल्ड ट्रंप ने अपने करीबी सहयोगी और विश्वासपात्र सर्जियो गोर को भारत में...

    More like this

    Canada drops many retaliatory tariffs, seeks reset in trade talks with US

    Canada is easing the heat in its trade war with the US, announcing...

    Introducing Fall TV’s New Characters

    This fall, there’ll be tons of new characters joining your favorite series on...

    Jack Antonoff Releases Soundtrack to ‘Honey Don’t!,’ Starring His Wife Margaret Qualley

    Jack Antonoff today released the soundtrack for Ethan Coen’s Honey Don’t!, a dark...