देश आज आजादी का जश्न मना रहा है. 78 साल पहले हुए मुल्क विभाजन की टीस बॉर्डर के इस पार और उस पार अब भी बनी हुई है. इस बंटवारे में भारत से लेकर पाकिस्तान तक हजारों-लाखों परिवार बिखर गए, कइयों ने हिंसा झेली तो कई हिंसा की आग में खत्म हो गए. कुछ बचे हुए लोगों ने टूटे सपनों के साथ और बिना अपनों के नए मुल्क में नई पहचान बनाई लेकिन विभाजन की विभीषिका आज भी दर्द देती है. आइए जानते हैं जब मुल्क बंट रहे थे तो लोगों पर क्या गुजर रही थी, बॉर्डर के दोनों ओर क्या हलचल चल रही थी?
‘महाकाल की गति अति विषम है,
वह घड़ी के कांटे की भांति ठीक-ठीक नपी-तुली गति से नहीं चलती…
कभी वह मन्द हो जाती है, और कभी अतिभीषण तीव्र गति धारण कर लेती है…
उसी के प्रभाव से व्यक्ति की भांति राष्ट्रों के जीवन का एक-एक वर्ष कभी-कभी सौ वर्षों के समान भारी हो जाता है.
और कभी हंसते-खेलते ही बात-की-बात में शताब्दियां बीत जाती हैं…’
ये शब्द लेखक और विद्वान आचार्य चतुरसेन के हैं, जिन्होंने हिंसा की बुनियाद पर देश के विभाजन और भारत और पाकिस्तान नाम के दो मुल्कों की टूटती किस्मत पर आंसू बहाते हुए लिखी थी. विभाजन की ये घटना केवल दो मुल्कों के बनने की नहीं थी, बल्कि भारत माता के हृदय के दो टुकड़े होने की भी थी. क्योंकि मुल्क ऐसे ही तो नहीं बंट जाते… कि सीमाओं पर लाइन खींच दी, दीवार खड़ी कर दी गई और नया मुल्क बन गया. मुल्क के बंटवारे से पहले काफी कुछ टूटता है… पहले लोगों की भावनाएं टूटती हैं, रिश्ते टूटते हैं, एक-दूसरे को बर्दाश्त करने की हदें टूटती हैं और फिर वो जख्म पड़ जाता है जो किसी मरहम से नहीं भरता.
इतिहास के पन्ने में कई गांठें…
हमारे मुल्क भारत ने 78 साल पहले विभाजन की विभीषिका झेली थी. दो मुल्क बने भारत और पाकिस्तान. जिनकी सीमाएं तो बंट गईं लेकिन दर्द और शिकायतें आज भी जस की तस बनी हुई हैं. आज दोनों देश अपनी आजादी की 79वीं सालगिरह मना रहे हैं. कल पाकिस्तान ने जश्न मनाया तो आज भारत में हर तरफ देश की आन-बान-शान का जश्न और देशभक्ति के नारों की गूंज है. लेकिन अगर इतिहास के पन्ने पलटें तो इन मुल्कों के बनने की कहानी में कई गांठें हैं, जो न तब सुलझी थीं और अब न अब सुलझते हुए दिख रही हैं. अतीत की कई परछाइयां आज भी वहीं की वहीं अटकी हैं दोनों मुल्कों में.
भारत तब एक हुआ करता था और अंग्रेजी गुलामी से लड़ रहा था. 1940 का दशक शुरू हुआ तब आजादी की लड़ाई तेज हो रही थी. अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई तो जिन्ना जैसे कई नेताओं को अलग मुल्क में अपनी सियासी तस्वीर की नई चमक दिखने लगी. पहले ना-नुकर की लेकिन सुलह के रास्ते बंद होते देख बाद में गांधी और नेहरू ने भी देश के दो टुकड़े होने के फॉर्मूले को मानना शुरू कर दिया. पर जनता को अब भी भरोसा नहीं था कि मुल्क बंट ही जाएगा.
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कभी इस मुल्क के लोगों ने अपने लोगों को मुल्क बांटते नहीं देखा था. उन्हें लगा कि ये सिर्फ सियासी तरकीबें हैं और जैसा है वैसा ही रहेगा ये मुल्क. उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब को अंग्रेज वाकई तार-तार कर जाएंगे, दो हिस्सों में बांट कर चले जाएंगे. यही कारण है कि जब बंटवारे की रूपरेखा तय करने के लिए साल 1946 की शुरुआत में ब्रिटिश कैबिनेट मिशन इंडिया आया तो भी दिल्ली और लाहौर जैसे शहरों में रह लोगों को यकीन नहीं हो रहा था कि वाकई ये मुल्क बंट सकता है. आखिर कौन अपनी गृहस्थी उजड़ते देखना चाहता.
लेकिन दिल्ली से लाहौर तक हवा गरम हो रही थी. सियासी फायदे के लिए लगाई गई बंटवारे की आग जमीन पर अपनी तपिश दिखाने लगी. सोमनाथ और वैशाली की नगरवधू जैसे ऐतिहासिक साहित्य लिखने के लिए मशहूर लेखक और विद्वान आचार्य चतुरसेन मार्च 1946 के अपने लाहौर प्रवास का जिक्र करते हुए हालात का वर्णन कुछ ऐसे करते हैं- ‘विभाजन से बहुत पूर्व ही से, मित्रों से मैं बहुधा कहा करता था कि किसी तरह पंजाब और सिंध से हिन्दू परिवारों को निकाल लाना चाहिए. बहुत मित्रों को मैंने तत्काल लाहौर छोड़ देने की सलाह भी दी. सन् 1946 के मार्च में मेरा हिन्दी-साहित्य का इतिहास छपा और मैं उसी समय जनवरी-फरवरी-मार्च के लगभग लाहौर में रहा. मेरे प्रकाशक मेहरचन्द लक्ष्मणदास सैदमिट्ठा गली में रहते थे. यह मुहल्ला ही मुसलमानी आबादी में था. अपनी अंतिम यात्रा में मैंने लाहौर का वह स्वप्न देखा, जो विस्फोटोन्मुख ज्वालामुखी का होता है. स्टेशन से अपने इन मित्र के घर तक पहुंचना मेरे लिए अत्यन्त त्रासदायक हो गया. एक सप्ताह तक लाहौर में रहा, और अद्भुत वातावरण देखा.’
‘महाराजा रणजीतसिंह की समाधि टूटी-फूटी थी. वहां ढेरों मलबा और घास-फूस जमा था, परन्तु बादशाही मस्जिद के गुम्बजों पर फिर से
संगमरमर मढ़ा जा रहा था. मुझे ऐसा अनुभव हुआ, जैसे एक घर में दुल्हन के ब्याह की तैयारियां हो रही हैं, दुल्हन पर हल्दी चढ़ाई जा रही है-और दूसरे घर में मुर्दा उठाने को पड़ा है.
दो घटनाओं ने मुझे सत्य रूप का दर्शन करा दिया. एक दिन सुबह ही मैं पड़ोस के एक सैलून में जा बैठा, बाल कटाए. क्षण-क्षण में मुझे ऐसा भय हो रहा था कि यह नाई कहीं मेरा गला ही न काट डाले. लम्बे-चौड़े डील-डौल का पंचहत्था जवान था. बड़ी ही लापरवाही से कैंची, उस्तरा और ब्रुश चला रहा था. शुरू में मुझे गुस्सा आया, पर फिर मुझपर आतंक छा गया. मैं अपनी भूल समझ गया. अन्त में मैंने एक रुपया दिया और बकाया रेज़गारी वापस पाने को हाथ फैलाया. परन्तु वह जवान मुस्लिम नाई धूर्ततापूर्वक हंसकर बोला, “बाच्छा, तूने जो दिया सो दे दिया, अब चलता हो!” और मैंने चुपचाप होने ही में कुशल समझी. हजामत ठीक बन चुकी थी. इसी प्रकार एक मेवे वाले से मैंने दो आने का एक संतरा लिया, और रुपया देकर बाकी पैसे मांगे, तो उसने रुपया गल्ले में डालकर और यह कहकर, कि ‘फिर कभी ले जाना’ मेरी ओर से रुख फेर लिया. निस्सन्देह यह सरासर डाकाज़नी थी वह भी बीच-बाज़ार. दुकानदार डाकू बने हुए थे. दूसरे दिन मैं वहां से चल दिया, और अपने मित्रों से लाख-लाख अनुरोध करता आया, कि वे तुरन्त लाहौर छोड़ दें.
‘और अन्त में जो होना था वहीं होकर रहा. परन्तु मैं भय, क्षोभ और आतंक से जैसे सराबोर हो गया-और जिस दिन विभाजन हो जाने पर दिल्ली में स्वतंत्रता-दिवस मनाया गया, घण्टाघर पर शानदार रोशनी की गई, लाल किले पर तिरंगा फहराया गया, मैं अपने घर के सब दरवाज़े बन्द करके चुपचाप पड़ा सिसकता रहा. उस रात को मैंने घर में दीप नहीं जलाया. दूसरे दिन अखबारों में पढ़ा, कि जब दिल्ली में घण्टाघर रोशनी से जगमग कर रहा था, लाहौर धांय-धांय जल रहा था.’

आख़िरी वक्त तक असमंजस में रहे लोग
साल 1947 में हुआ मुल्क का विभाजन वैसे तो एक राजनीतिक फैसला था लेकिन इससे करोड़ों जिंदगियों में अचानक भूचाल आ गया. आम लोगों को आखिरी दिन तक पता ही नहीं था कि वे किस देश में रहेंगे. उदाहरण के लिए पंजाब के गुरदासपुर जिले का ही मामला था. यहां बॉर्डर लाइन तय होने से पहले लोग मान रहे थे कि पूरा जिला पाकिस्तान में जाएगा. लेकिन 17 अगस्त को बाउंड्री कमीशन के फैसले से गुरदासपुर भारत में शामिल हो गया.
इस अचानक बदलाव ने हजारों लोगों को पलायन करने पर मजबूर कर दिया. इसी तरह लाहौर के पास कसूर में रहने वाले कई हिंदू परिवारों ने सोचा था कि यह भारत में रहेगा, लेकिन यह पाकिस्तान का हिस्सा बन गया. लाहौर जहां हिंदू और सिख आबादी ज्यादा थी उसे विभाजनकर्ता सिरिल रेडक्लिफ भारत को देना चाहते थे लेकिन पंजाब का एक बड़ा शहर पाकिस्तान को भी देना था तो फैसला बदल दिया. वहां बसे परिवार अपनी जगह छोड़ने का पहले से फैसला तक नहीं कर पाए और हिंसा की चपेट में आ गए. बंगाल के कई इलाकों में भी आखिरी समय तक कंफ्यूजन की स्थिति बनी रही. कई इलाकों में तो लोगों ने आजादी का जश्न अलग झंडा लगाकर मनाया लेकिन अगले दिन पता चला कि उनका मुल्क ही दूसरा है.
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कैसी थी आजादी की रात और पहली सुबह?
14-15 अगस्त 1947 की रात दिल्ली में भव्य जश्न में नए मुल्क भारत ने आकार लिया. मशहूर लेखक डोमिनिक लैपीयरे और लैरी कॉलिन्स अपनी किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में लिखते हैं- ‘सैन्य छावनियों, सरकारी कार्यालयों, निजी मकानों आदि पर फहराते यूनियन जैक को उतारा जाना शुरू हो चुका था. 14 अगस्त को जब सूर्य डूबा तो भारत भर में यूनियन जैक ने ध्वज-दण्ड का त्याग कर दिया. आधी रात को धारा सभा भवन पूरी तरह तैयार था. जिस कक्ष में भारत के वायसरायों की भव्य ऑयल-पेंटिंग्स लगी रहा करती थीं, वहीं अब अनेक तिरंगे झंडे शान से लहरा रहे थे. नेहरूजी सूती जोधपुरी पायजामे और बण्डी में थे. वल्लभभाई पटेल सफेद धोती में प्रकट हुए थे.’
’14 अगस्त की सुबह से ही देश के शहर-शहर, गांव-गांव में जश्न शुरू हो गया था. दिल्ली के बाशिंदे घरों से निकल पड़े. साइकिलों, कारों, बसों, रिक्शों, तांगों, बैलगाड़ियों, यहां तक हाथियों-घोड़ों पर भी सवार होकर लोग दिल्ली के केंद्र यानी इंडिया गेट की ओर चल पड़े. लोग नाच-गा रहे थे, एक-दूसरे को बधाइयां दे रहे थे और चारों ओर राष्ट्रगान की धुन सुनाई पड़ रही थी.
देश भर से, हर प्रदेश से, चारों दिशाओं से लोग दिल्ली की ओर दौड़े चले आ रहे थे. तांगों के पीछे तांगे निकल रहे थे, बैलगाड़ियों के पीछे बैलगाड़ियां, कारें-ट्रकें, रेलगाड़ियां, बसें सब लोगों को दिल्ली की ओर ला रही थीं. लोग छतों पर बैठकर आए, खिड़कियों पर लटककर आए, साइकिलों पर आए और पैदल भी. लोग गधों पर चढ़े, घोड़ों पर चढ़े. मर्दों ने नई पगड़ियां पहनीं, औरतों ने नई साड़ियां. बच्चे मां-बाप के कंधों पर लटक गए. देहात से आए बहुत से लोग पूछ रहे थे कि यह धूम-धड़ाका काहे का है? तो लोग बढ़-बढ़ कर बता रहे थे- अरे, तुम्हे नहीं मालूम, अंग्रेज जा रहे हैं. आज नेहरूजी देश का झंडा फहराएंगे.
हम आजाद हो गए.’
उस रात और अगली सुबह आजादी की पहली किरण का स्वागत लोगों ने गजब किया. राजेंद्र लाल हांडा ने आजादी की रात की आंखों देखी लिखते हुए धारासभा की भीड़ और लोगों के उत्साह का भरपूर चित्रण किया है-
‘रात के लगभग दो बजे स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू धारा सभा से निकल कर वायसराय भवन की ओर गवर्नर जनरल को आमंत्रित करने गए. आजादी के उत्साह में भीड़ भी उनके पीछे-पीछे हो ली. खाली स्थान था ही नहीं और जनसमूह इतना बड़ा था कि यह पता लगाना असंभव था कि लोग किधर जा रहे हैं. कुछ देर बाद प्रधानमंत्री गवर्नर जनरल को साथ ले धारा सभा भवन में आ गए. उस समय लोगों का जोश चरम सीमा को पहुंच चुका था.
धारासभा के बाहर हरी घास पर, सड़कों पर, सेक्रेटेरियट के सामने विशाल मैदान में तिल रखने की भी कहीं जगह दिखाई न देती थी. ऐसी भीड़ तो लोगों ने प्रायः देखी होगी, पर आधी रात को किसी भी स्थान पर किसी समय दो तीन लाख आदमी इकट्ठे न हुए होंगे. ठीक आधी रात के समय जिस क्षण 15 अगस्त के दिन ने जन्म लिया. लाखों नर-नारियों को ऐसा आभास हुआ मानों गंगा की तरह स्वर्ग से स्वतंत्रता धरती पर उतर रही हो…”
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जामा मस्जिद से लाल क़िले तक लोग ही लोग…
जब ‘जन गण मन’ आरम्भ हुआ तो इसकी ललित लय में हजारों सिर हिल उठे. किन्तु जैसे ही राष्ट्र गान में पंजाब और सिंध का उल्लेख हुआ एकत्रित भीड़ में सैंकड़ों आदमियों ने सिर उठाकर एक-दूसरे को देखा. वहां उपस्थित जनों को सहसा विभाजन की टीस याद आ गई जो दूसरी ओर पाकिस्तान नाम के मुल्क के रूप में मूर्त रूप ले चुकी थी और सरहदों पर हिंसा को जन्म दे चुकी थी.
रात तीन बजे तक शपथ-ग्रहण आदि के बाद समारोह समाप्त हो गया. कुछ लोग घरों को वापस हो लिए, बहुत से हरे लॉनों और फुटपाथों पर सो रहे. अगले दिन यानी 15 अगस्त की सुबह आठ बजे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लाल किले पर यूनियन जैक की जगह भारत का तिरंगा झंडा फहराया. वहां 10 लाख से कम आदमी नहीं थे. दिल्ली गेट से कश्मीरी गेट तक और जामा मस्जिद से लाल किले तक कहीं सड़क या भूमि दिखाई नहीं देती थी. सिवाय एक अपार जनसमुदाय के और कुछ नहीं था. इस भीड़ को विसर्जित होने में चार घंटे लगे. सभी सड़कें प्रायः एक बजे दोपहर तक भीड़ से खचाखच भरी रहीं.’
नए मुल्क का उद्घोष कर लोग घरों को लौट गए, लेकिन सब नहीं. लाहौर की सड़कों पर लोगों के घर उजाड़े जा रहे थे. इंडिया की ओर आने वाली ट्रेनों को लूटा जा रहा था. बदले की आग इधर भी थी. भारत से पाकिस्तान की ओर जा रहे लोगों पर इधर से भी हमले होने लगे. कई महीने लगे इस आग को शांत होने में, लेकिन बचे हुए लोगों को अपनी जिंदगी व्यवस्थित करने में कई साल लगे. अपना गुनाह न होने के बाद भी उनपर शरणार्थी जीवन का ठप्पा लग गया. मुल्क बदल गया लेकिन उनके जीवन के एक हिस्सा हमेशा हमेशा के लिए दूसरे मुल्क में ही रह गया, कुछ मीठी और कुछ खट्टी यादें बनकर…
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