पाकिस्तान, जिसे लंबे समय से चीन का “सदाबहार सहयोगी” माना जाता रहा है, को अब अमेरिका में बसंत की बहार नजर आ रही है. जिस देश की आर्मी ने अमेरिका के सबसे बड़े दुश्मन लादेन को छिपाये रखा उसी मुल्क के आर्मी चीफ को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप अपना मेहमान बनाते हैं. आसिम मुनीर और ट्रंप का ये बिरादराना रोमांस कूटनीति की दुनिया की अजब केस स्टडी है.
ट्रंप और आसिम मुनीर के इस गर्मजोशी भरे संबंधों के कई शिकार हैं. ट्रंप ने पाकिस्तान की सेना को पालतू बनाते-बनाते पाकिस्तान की चुनिंदा सरकार को डस्टबीन में डाल दिया है. ऑपरेशन सिंदूर के बाद आसिम मुनीर दो बार अमेरिका जा चुका है, लेकिन हास्यास्पद यह है कि ट्रंप ने पाकिस्तानी जनता की चुनी हुई सरकार से कोई राब्ता रखना उचित नहीं समझा.
इस नई-नई गर्मजोशी से चीन की स्थिति भी डंवाडोल हो गई है. पाकिस्तान उसका पसंदीदा क्लाइंट स्टेट था. लेकिन अब पाकिस्तान अमेरिकी खेमे में जा रहा है. हालांकि पाकिस्तान ने कहा है कि वो चीन की कीमत पर यूएस से रिश्ते नहीं सुधारेगा. लेकिन जिस पाकिस्तान पर अमेरिका तन-मन-धन खर्च कर रहा है उसे चीनी खेमे में देखना कैसे बर्दाश्त करेगा. क्या चीन अपने ‘आयरन ब्रदर’ का नया बॉस स्वीकार करेगा? या फिर सवाल यह है कि क्या एशिया के पावर बैलेंस में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है?
पाकिस्तान एक अप्रत्याशित रणनीतिक सहयोगी
हाल ही में पाकिस्तानी आर्मी ने वाशिंगटन में लॉबिंग में भारी-भरकम खर्च किया है. इसी लॉबिंग के दम पर आसिम मुनीर को व्हाइट हाउस में एंट्री मिल गई लेकिन शहबाज शरीफ को कुछ नहीं मिला.
पाकिस्तान में एंट्री के लिए लालायित ट्रंप इस मौके के लिए तैयार बैठे थे. उनकी हालिया नीतियों ने पाकिस्तान को एक अप्रत्याशित रणनीतिक सहयोगी के रूप में उभारा है. आसिम मुनीर का दो बार अमेरिका दौरा, वहां से भारत को धमकी देने की बदजुबानी, अमेरिका से दोस्ती का डींग इसके उदाहरण है.
इस बीच ट्रंप ने पाकिस्तानी सामानों पर टैरिफ को 29% से घटाकर 19% कर दिया और तेल खनन को आगे बढ़ाने की घोषणा की. अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों पर बाहर से नजर रखने वालों लोगों के लिए एक आश्चर्यजनक बदलाव था. क्योंकि ट्रंप अपनी पहली पारी में पाकिस्तान को लेकर एकदम अलग रूख में थे. उन्होंने कई पाकिस्तान को मिलने वाली कई आर्थिक सहायता पर रोक लगा दी थी. लेकिन उनका नया रुख हैरान करने वाला था.
नई दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हप्पीमॉन जैकब इस बदलाव की वजह बताते हैं, “ट्रंप की यह नीति चीन को घेरने और मध्य पूर्व में ईरान के प्रभाव को कम करने की रणनीति का हिस्सा है. पाकिस्तान को सैन्य ठिकानों तक पहुंच देकर अमेरिका लाल सागर और खाड़ी क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करना चाहता है.”
पाकिस्तान को लेकर ट्रंप का सियासी शोर और चीन की प्रतिक्रिया?
अमेरिका-पाकिस्तान के तात्कालिक रोमांस का असर बीजिंग तक दिखाई दे रहा है. लेकिन बीजिंग सधी हुई प्रतिक्रिया दे रहा है. चीनी रणनीतिकारों का मानना है कि ट्रंप के थोड़े समय के ‘राजनीतिक नॉइस’ से पाकिस्तान अपना चीन संग रिश्ता दांव पर नहीं लगाएगा.
चीन और पाकिस्तान के रिश्ते दशकों पुराने हैं जिनमें आर्थिक, रक्षा और रणनीतिक सहयोग गहराई से जुड़ा है. चीन ने न सिर्फ CPEC जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश किया है बल्कि कूटनीतिक तौर पर भी पाकिस्तान का हर मोर्चे पर साथ दिया है.
अमेरिका से लौटने के बाद पाकिस्तान के आर्मी चीफ जुलाई के आखिर में बीजिंग पहुंचे, हालांकि चीन ने मुनीर को ज्यादा तवज्जो नहीं दी. राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने आसिम मुनीर से मुलाकात नहीं की.
बीजिंग के रेनमिन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर शी यिनहोंग कहते हैं, “चीन पाकिस्तान की दोहरी नीति को फिलहाल बर्दाश्त कर सकता है, क्योंकि इस्लामाबाद की आर्थिक और सैन्य निर्भरता बीजिंग पर बनी रहेगी. लेकिन अगर पाकिस्तान अमेरिका के साथ सैन्य ठिकानों तक साझेदारी करता है, तो यह चीन के लिए अस्वीकार्य होगा.”
दरअसल चीन के लिए CPEC और BRI की सफलता सर्वोपरि है. अगर पाकिस्तान अमेरिका के साथ संबंधों को इतना मजबूत करता है कि CPEC और चीनी निवेश के हित खतरे में पड़ते हैं, तो चीन इसे बर्दाश्त नहीं करेगा और इससे सचमुच एशिया का शक्ति संतुलन बदल सकता है. अगर ट्रंप अमेरिका स्थायी सैन्य अड्डा हासिल करने में कामयाब होते हैं तो इससे चीन तिलमिला सकता है.
ऐसी स्थिति में चीन पाकिस्तान पर अपनी आर्थिक ताकत का इस्तेमाल कर सकता है. पाकिस्तान पहले से ही कर्ज के बोझ तले दबा है, और चीन का कर्ज इसमें एक बड़ा हिस्सा है. विश्लेषकों का मानना है कि चीन CPEC के जरिए दबाव बनाए रखेगा और ग्वादर बंदरगाह जैसे रणनीतिक परियोजनाओं पर अपनी पकड़ मजबूत करेगा.
दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन!
ट्रंप के इशारे पर चल रहे पाकिस्तानी हुक्मरानों को चीन तब तक बर्दाश्त करेगा जब तक उनके अमेरिका-समर्थक कदम सीधे तौर पर चीन के राष्ट्रीय हितों विशेषकर CPEC और BRI को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं. पाकिस्तानी नेतृत्व चाहे जितना अमेरिका-चीन बैलेंसिंग का खेल खेले, उसकी वास्तविक निर्भरता चीन पर ही रहेगी. ट्रंप की डीलमेकिंग कुछ समय के लिए हलचल जरूर पैदा कर सकती है पर पावर बैलेंस की बुनियाद नहीं हिला सकती.
ट्रंप की पाकिस्तान नीति और चीन की संयमित प्रतिक्रिया दक्षिण एशिया में एक नाजुक शक्ति संतुलन की ओर इशारा करती है. चीन अपनी आर्थिक और रणनीतिक ताकत के दम पर पाकिस्तान को अपने ऑर्बिट में रखने की कोशिश करेगा. लेकिन इस्लामाबाद की कुटिलनीति से तनाव बढ़ सकता है.
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