करीब एक महीने से ज्यादा भारत के एक एयरपोर्ट पर अटका ब्रिटिश F-35B फाइटर प्लेन, आखिरकार मंगलवार को यहां से रवाना हो गया. वैसे तो ये एक लाख वर्षों में होने वाली कोई ऐसी अद्भुत खगोलीय घटना नहीं है जिसका याद रखा जाना मानवता के इतिहास के लिए जरूरी हो. मगर एक मीम की वजह से मुझे ये घटना अब हमेशा याद रहेगी. इस मीम में भारत से रवाना होते इस फाइटर प्लेन की तस्वीर के साथ लिखा था- ‘सैयारा’ देखने के बाद भारत से जाता हुआ F-35B जेट.
मीम मजेदार हो तो बिना हंसे आगे स्क्रॉल कर जाना कलाकार की कला का अपमान जैसा होता है, ये सब सोशल मीडिया के संस्कार हैं. मैंने भी हंसने के बाद ही आगे स्क्रॉल किया तो एक और मीम आ गया जिसमें ‘सैयारा‘ देखकर थिएटर में रो रहे कुछ यंग दर्शकों की तुलना चीन-जापान के युवाओं से की गई थी. लब्बोलुआब ये था कि ‘वहां के युवा AI मॉडल बना रहे हैं, तकनीकी क्रांति लीड कर रहे हैं और अपने वाले ‘सैयारा’ देखकर आंसू बहा रहे हैं.’
हंसी तो इस बार भी आई मगर ये अटपटा ज्यादा लगा. बात सिर्फ मीम की नहीं है, मेरे आसपास के 90s में बड़े हुए काफी मिलेनियल्स इस बात से आहत हैं कि ये जेन ज़ी ‘सैयारा’ देखकर सेंटी हुए जा रहे हैं. हालांकि, दौड़ा लिए जाने के खतरे को देखते हुए मैंने उनसे ये नहीं पूछा कि उन्हें इन दर्शकों के ‘जेन ज़ी’ ही होने का इतना भरोसा कैसे है? कोई मिलेनियल या जेन एक्स वाला भी तो फिल्म देख ही सकता है. ना ही मेरी ये पूछने की हिम्मत हुई कि उन्हें ‘सैयारा’ से इतनी चिढ़ क्यों हो रही है. फिर भी इन लोगों से बातचीत से मैंने जाना कि असल में इन्होंने फिल्म देखी नहीं है.
इन्हें दिक्कत है उन वायरल वीडियोज से जिसमें ‘सैयारा’ देख रहे यंग दर्शक थिएटर में फफक कर रो दे रहे हैं. ऐसे वीडियोज में कई दर्शक अपने आपे से बाहर भी नजर आ रहे हैं और कुछेक तो गश खाकर गिर भी पड़ रहे हैं. इन वीडियोज की वजह से मेरे उन जानने वालों को ‘सैयारा’ पर बड़ा गुस्सा आ रहा है. दिक्कत ये नहीं है.
दरअसल, मेरी पहली पसंद ना होने के बावजूद (वही मिलेनियल पूर्वाग्रह), परिस्थितिवश रिव्यू के लिए ‘सैयारा’ देखने मुझे ही जाना पड़ा. अब दिक्कत ये है कि मुझे तो इस फिल्म पर गुस्सा आया ही नहीं. उल्टे, मुझे तो ये फिल्म अच्छी लग गई. बेहतरीन-उम्दा-माइंड ब्लोइंग तो मैंने अपने रिव्यू में भी नहीं कहा, अच्छी जरूर लगी. ‘सैयारा’ में डायरेक्टर मोहित सूरी जो करने निकले थे, वो उन्होंने ईमानदारी से किया है.
‘सैयारा’ की अग्निपरीक्षा
फिल्म देखते हुए महसूस भी होता है कि मोहित जो बनाना चाहते थे, वो बनाने में कामयाब हो गए हैं. ऐसा कहने की मेरे पास एक मजबूत वजह है- लगभग 70% भरे जिस थिएटर (फर्स्ट डे फर्स्ट शो) में मैंने ‘सैयारा’ देखी, उसमें मेरे अलावा शायद ही पूरे 4 लोग 90s में उगी खेप के रहे हों. बाकी सारे कॉलेज-यूनिवर्सिटी (कुछ शायद स्कूल बंक वाले भी) वाले एकदम यंग लोग थे. फुल जेन ज़ी क्राउड यानी उस आयु वर्ग की भीड़, जिससे हमें फोन पे रील्स सरकाते रहने से घिस चुके अटेंशन स्पैन की शिकायत रहती है. लेकिन पूरी फिल्म के दौरान गिन के दो बार ही मेरे अगल-बगल किसी ने अपना फोन छुआ.
यकीन मानिए, मेरी नजर में ये किसी भी फिल्म का सबसे बड़ा लिटमस टेस्ट है. क्योंकि आजकल अच्छी खासी बड़ी और गंभीर फिल्मों की मीडिया स्क्रीनिंग में हमें अपने मीडिया के साथियों को औसतन 4-5 बार टोंकना पड़ जाता है कि ‘प्लीज फोन रख दीजिए’. इस काम में मेरे इतने साल तो खर्च हो ही चुके हैं कि इसे ‘अच्छा-खासा समय’ कहा जा सके. इसलिए अक्सर फिल्मों, खासकर लव स्टोरीज में बहुत कुछ क्लीशे लगने लगता है. लेकिन लव स्टोरी की कई क्लीशे सिचुएशन में भी ‘सैयारा’ कुछ अलग करने की कोशिश करती है, जो अच्छा लगा.
मगर ये फिल्म देखते हुए मुझे सबसे दिलचस्प चीज ये महसूस हुई कि मेरे चेहरे पर लगातार मुस्कुराहट थी. और ये इसलिए कि ‘सैयारा’ के गंभीर-महत्वपूर्ण सीन्स पर साथ बैठे दर्शकों का रिएक्शन देखते हुए मुझे वो दौर याद आ रहा था जब हाई-स्कूल और इंटरमीडिएट के लेवल पर पहुंचे हम ऐसी फिल्मों की टारगेट ऑडियंस हुआ करते थे. साथ ही मैच्योरिटी की सीढ़ी पर अपने से एक स्टेप ऊपर खड़े कजिन्स से सुने रोमांटिक फिल्मों के क्रेजी किस्से भी याद आ रहे थे.
उनमें से कुछ को तो सीने में दिल होने और उसके धड़कने का एहसास पहली बार ‘कयामत से कयामत तक’ और ‘मैंने प्यार किया’ देखने के बाद हुआ था. परिवार के कजिन्स में एक बैच ‘आशिकी’ वालों का भी रहा. फिर ‘दिलवाले’, ‘दिल’, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’, ‘साजन’ और ‘राजा हिंदुस्तानी’ वाले भी हुए. और ‘सिर्फ तुम’, ‘कुछ कुछ होता है’,‘मोहब्बतें’, ‘कहो ना प्यार है’, ‘गदर’, ‘साथिया’ ‘तेरे नाम’ वाले बैच में तो अपन खुद हैं.
सबकी अपनी-अपनी ‘सैयारा’
विभिन्न कुसंस्कारी-कुटिल योजनाओं से जुटाई धनराशि के बल पर चाटी गई फिल्मी लव स्टोरियों के दुष्प्रभाव के उदाहरण में हमने क्या नहीं देखा और क्या नहीं सुना! हमारे मिलेनियल प्रेम सेनानियों ने ‘कयामत से कयामत तक’ उर्फ QSQT के प्रभाव में आकर किसी क्यूटी संग घर से फरार होने की योजनाएं बनाई थीं. आंख के आगे चिलमन बनकर भविष्य क्या, वर्तमान तक धुंधला कर देने वाली, नाक तक लंबी जुल्फें पाले एक भाई ‘जीता था जिसके लिए-जिसके लिए मरता था’ गाते धरा गया तो सीधा आर्मी कट बालों के साथ ही घर में घुस सका था.
DDLJ पीड़ित कई-कई राहुल, अपनी सिम्मियों को पलटाने के चक्कर में प्राध्यापकों द्वारा ऐसे ऐंठे गए कि फिर उन्हें खुद गर्दन से पलटने में एक-आध हफ्ते लगे. ये सब करते हुए कम से कम सब सीधे तो खड़े थे. लेकिन ऋतिक की एंट्री ने ऐसा वायरस छोड़ा कि उसकी तरह टिडिंग-डिंग-डिंग (गाने का नाम बताना पड़े तो धिक्कार है!) करने के चक्कर में कॉमरेड्स की टांगें आपस में उलझी जा रही थीं. ‘तेरे नाम’ कट के चलते अपना दोस्त समझकर राह चलते किसी अनजान लड़के को आवाज देने जैसी दुर्घटनाएं अभी इतिहास के पन्नों में धंसी नहीं हैं, इंट्रो पेज पर ही हैं.
ये सब तो बड़े स्टार्स की, बड़ी-चर्चित-पॉपुलर फिल्मों के साइड-इफेक्ट हैं. फिल्म पिपासु मिलेनियल्स तो राडार से बचकर सरक चुकीं ऐसी फिल्मों के भी नशे करते पाए गए हैं कि उनका नाम लेने पर आज उनका हीमोग्लोबिन कम हो जाएगा. जैसे- आफताब शिवदासानी की ‘जीना सिर्फ मेरे लिए’, तुषार कपूर की ‘मुझे कुछ कहना है’ या फिर रितेश देशमुख की ‘तुझे मेरी कसम’.
यंगस्टर्स को कैसे हो जाता है लव स्टोरी वाली फिल्मों का नशा?
मिलेनियल्स ही नहीं, उनसे पिछली पीढ़ी यानी जेनरेशन एक्स के भी ऐसे ही सैयारा-नुमा बर्ताव की अपनी कहानियां रही हैं. मैंने अपने ही पिता को इस विचार से घबराया हुआ पाया है कि उनका बेटा टीवी पर ‘बॉबी’ (1973) देखता मिला है. कारण ये कि उनकी याद्दाश्त में ये फिल्म इस फुटनोट के साथ दर्ज है कि इसे देखने के बाद यूथ ‘बिगड़ने’ लगा था और प्यार में घर से भाग लेने की प्रवृति बढ़ने लगी थी. 1981 में आई ‘एक दूजे के लिए’ इसलिए बदनाम रही कि इसे देखने के बाद प्रेमी जोड़ों के आत्महत्या करने के मामले आने लगे थे.
सवाल ये है कि ऐसा होता क्यों है? इसका एक जवाब ये है कि 20s की उम्र में युवाओं के मन में जो इमोशंस फटने शुरू होते हैं, यंग लव स्टोरी वाली फिल्में अगर बड़े पर्दे पर कायदे से वैसा दिखाने में कामयाब होती हैं तो यंगस्टर्स रिलेट करने लगते हैं. इसलिए फिल्म को पॉपुलैरिटी तो जमकर मिलनी ही है. ये इमोशंस ऐसे होते हैं कि एक कोमल दिल इन्हें परिवार-समाज से छुपाकर ही रखता है क्योंकि दुनियादारी में अभी उसे ‘बच्चा’ ही समझा जा रहा होता है. इसलिए पर्दे पर यंग किरदारों के गंभीर इमोशंस से वो कनेक्ट कर लेता है.
मीडिया की पढ़ाई में हमें एक थ्योरी पढ़ाई गई थी, शायद ग्रेटिफिकेशन थ्योरी नाम था (एकदम पुख्ता जानकारी के लिए थोड़ी रिसर्च खुद भी कर लें, मैं पहले ही काफी कर चुका). ये थ्योरी कहती है कि जब कोई दर्शक एक फिल्म चुनता है, तो चुनने का आधार उसकी अपनी साइकोलॉजिकल और इमोशनल जरूरतें होती हैं. और जब वो ये फिल्म देखता है तो उसे एक तरह का रिलीफ मिलता है.
इसका एक उदाहरण अक्सर यूं पढ़ाया जाता है कि जब एक दर्शक स्क्रीन पर हीरो को फाइट करते देखता है तो उसका गुस्सा और एंग्जायटी भी रिलीज होती है. फिल्म देखकर जब वो उठता है तो उसके अंदर के ये इमोशन संतुष्टि पाते हैं और वो थोड़े सुकून में होता है. जैसे- अनिल कपूर की ‘नायक’ देखते हुए हम सब मन में खुद को एक दिन का मुख्यमंत्री इमेजिन करने लगते हैं. कई तो प्रधानमंत्री भी बन जाते हैं… ऑब्वियसली, ख्यालों में!
इस तरह अगर सोचा जाए तो आज का एक कॉलेज-गोइंग युवा जब ‘सैयारा’ देख रहा होगा तो उसके अंदर प्यार का जो इमोशन कुलबुला रहा है, वो संतुष्ट हो रहा होगा. उसके मन में छुपे बैठे प्यार-तन्हाई-रोमांस जैसे इमोशंस उसे स्क्रीन पर उतरते दिख रहे होंगे. वो रिलेट कर पा रहा होगा. वैसे ही, जैसे हम मिलेनियल्स ने अपने उस फेज में, अपने दौर की यंग लव स्टोरीज देखते हुए महसूस किया होगा. हर दौर की अपनी ‘सैयारा’ होती है. मगर जेन ज़ी ऑडियंस अपनी ‘सैयारा’ देखते हुए जिस तरह ट्रोल हो रही है उसके पीछे मुझे तो एक ही वजह समझ आई.
‘मैच्योर’ मिलेनियल्स की ‘सैयारा’ हेट
हम मिलेनियल्स डिजिटल दुनिया के सोशल मीडिया संसार में जेन ज़ी से पहले स्थापित हो चुके हैं. हम पहले सोशल मीडिया पर आए, हमारे पास आज ठीकठाक फॉलोवर्स हैं. हम बोलते हैं तो हमारे चार या चार हजार या फिर चार लाख फॉलोवर्स सुनते हैं (ऐसा हमारे लाइक्स-कमेंट्स से तो लगता ही है). और सोशल मीडिया ने हर चीज पर बोले चले जाने को एक लाइफस्टाइल तो बना ही दिया है. तो हम मिलेनियल्स बोल रहे हैं, ‘सैयारा’ पर रियेक्ट कर रहे हैं.
इस फिल्म के बारे में सोशल मीडिया और रील्स पर हमें जो दिख रहा है, हम उसपर रियेक्ट कर रहे हैं. ऐसा करने वाले मेरे आसपास के मिलेनियल्स में से अधिकतर ने ‘सैयारा’ देखी भी नहीं है. उनसे बातचीत और उनकी अरुचि बताती है कि वो देखना भी नहीं चाहते (वही मिलेनियल पूर्वाग्रह). आखिर हम बड़े और ‘मैच्योर’ भी तो हो चुके हैं ना, अब ये सब ‘कच्ची उम्र वाली लव स्टोरीज’ कौन देखता है!
ऊपर से ‘सैयारा’ के शोज से इमोशनल होकर रोते, भावुकता से भर कर रियेक्ट होते इन ‘बालकों’ के ऐसे वीडियोज आ रहे हैं कि और भी हिम्मत नहीं हो रही होगी देखने की. मगर हम भूल जाते हैं कि ‘आशिकी’ के शोज में भी ऐसा होता था. मेरे एक मित्र जिनका उस दौर में, गोरखपुर में सिनेमा हॉल चलता था, तब की कहानियां बहुत एक्साइटमेंट से बताते हैं.
उन्होंने ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ और ‘तेरे नाम’ जैसी फिल्मों के शोज में दर्शकों के ‘पगलाने’ के तमाम किस्से सुनाए. जनता की डिमांड पर कैसे ‘रुक जा ओ दिल दीवाने’ गाना कई-कई बार रिपीट किया जाता था. सलमान खान को दुख में मानसिक संतुलन खोते देख किसी ने हॉल में अपनी टी-शर्ट फाड़ ली थी और रोते हुए बाहर निकलने वालों की तो अलग से जनगणना की जा सकती थी.
‘सैयारा’ में भी यही तो हो रहा है, अलग क्या है?! बस अब सोशल मीडिया आ गया है तो लोग भावुक होने वालों की रील बना ले रहे हैं, कोई खुद अपनी बना रहा है. आखिर अपने रिएक्शन को माल बनाकर सोशल मीडिया की मंडी से ट्रेक्शन वसूल लेना भी तो इस दौर का सच है ही न! अब पता नहीं कि ‘सैयारा’ की ट्रोलिंग करने वाले ज्यादा खफा किस बात से हैं… इमोशनल लव स्टोरी देखने वालों पर या उन एक्सट्रीम रिएक्शन्स की रील्स पर. क्योंकि मैंने तो ‘सैयारा’ देखी है और मैं खुद को पक्का मिलेनियल भी मानता हूं.
मुझे तो फिल्म अच्छी ही लगी और मुझे इसपर कोई गुस्सा भी नहीं आया. मुझसे तो कोई जितनी बार भी पूछेगा, मैं यही कहूंगा कि ‘सैयारा’ एक बार तो थिएटर जाकर देखी जा सकती है क्योंकि थिएटर में भरी भीड़ के साथ फिल्म का माहौल और मजेदार लग रहा है. अब पता नहीं ये मिलेनियल समाज मुझे स्वीकार करेगा या नहीं… कहीं मैं दौड़ा न लिया जाऊं!
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