More
    HomeHomeपति और कागजों के बिना महिलाओं की नागरिकता पर संकट, सीमांचल में...

    पति और कागजों के बिना महिलाओं की नागरिकता पर संकट, सीमांचल में SIR प्रक्रिया की कीमत चुका रही आधी आबादी

    Published on

    spot_img


    बिहार के सीमांचल में चल रही स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) प्रक्रिया के बीच कई महिलाओं की ज़िंदगी सवालों के घेरे में आ गई है. यहां एक औरत की पहचान अब उसकी अपनी नहीं रही, वो अब उसके पति की छाया बनकर रह गई है. वो पति जो अब शायद उसके साथ नहीं है, जिसने दूसरी शादी कर ली. बिना कागज़ात, बिना पति, बिना वंशावली रिकॉर्ड वाली महिलाएं अब यह साबित करने के लिए दर-दर भटक रही हैं कि वे उस देश की नागरिक हैं जिसे उन्होंने कभी छोड़ा ही नहीं.

    ये सिर्फ अपना नाम वोटर लिस्ट में दर्ज कराने की लड़ाई नहीं है, बल्कि अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने की लड़ाई है. वे अपने जीवन को एक ऐसे राज्य से जोड़ने की कोशिश कर रही हैं जो अचानक उनसे ऐसे सवाल पूछ रहा है जिनके जवाब देने के लिए उसने उन्हें कभी तैयार ही नहीं किया गया. पति के उपनाम के बिना आप कौन हैं? उनसे पूछा जा रहा है कि तुम्हारा पिता 2003 की वोटर लिस्ट में था भी या नहीं?, गांव का कोई बुज़ुर्ग है जो तुम्हारे पक्ष में बोले? और इन सवालों के जवाब उनके पास नहीं हैं, क्योंकि कभी ज़रूरत नहीं पड़ी थी. इन महिलाओं के नाम, बोली, पहनावे और चेहरे सरकारी खांचों में फिट नहीं बैठते. बिहार के इस कोने में जहां संदेह व्यवस्थागत हो गया है और जांच अक्सर पक्षपात का रूप धारण कर लेती है, उनकी नारीत्व उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी और सबसे स्थायी प्रतिरोध दोनों बन जाती है.

    शहरी बिहार में तो SIR प्रक्रिया में काफी सक्रियता दिखी, BLO यानी बूथ लेवल अधिकारी लोगों के घर जाकर दस्तावेज़ भरवा रहे थे. मतदाताओं को 2003 की सूची से तत्परता और सावधानी से जोड़ रहे थे. वहां डर नहीं था, लेकिन जैसे ही सीमांचल के गांवों में कदम रखा, एक अलग ही नज़ारा दिखा. लोग पंचायत कार्यालयों में पुरानी पारिवारिक सूची खंगालते दिखे, खुद वंशावली बनाने की कोशिश में थे. BLOs की ग़ैरमौजूदगी आम शिकायत थी, लेकिन अधिकारी कुछ सहयोगी भी थे. बंद दरवाजों के पीछे फ़ॉर्मों की जांच हो रही थी. फिर भी असली गड़बड़ी उन इलाकों में दिखी जिन्हें ‘संभावित संदिग्ध’ मानकर विशेष निगरानी में रखा गया है.

    कई गांवों को चुपचाप संदिग्ध घोषित किया!

    सीमांचल के किशनगंज, पूर्णिया, अररिया जैसे सीमावर्ती जिलों में शक अब नज़रिया नहीं, सिस्टम बन गया है. यहां गांवों को चुपचाप संदिग्ध घोषित कर दिया गया है. कुछ बूथों को चिह्नित कर BLOs को आंतरिक आदेश दिए गए हैं कि किसके नाम पर ध्यान देना है और किसे नज़र में रखना है. मानदंड क्या हैं? अगर कोई 2003 की वोटर लिस्ट में माता-पिता का नाम न दिखा पाए, तो समझा जाता है कि उसकी नागरिकता संदिग्ध है. कई गांवों में निवास प्रमाण पत्र देना बंद कर दिया गया है. कुछ मामलों में घूस लेकर दस्तावेज़ दिए जाने की शिकायतें सामने आईं. एक स्थानीय निवासी ने तो जिला अधिकारी से की गई अपनी बातचीत के स्क्रीनशॉट तक साझा किए. जिसमें उसने आरोप लगाया कि अधिकारी दस्तावेज़ जारी करने के लिए पैसे मांग रहे थे.

    चिह्नित बूथों पर पहुंची आजतक की टीम

    आजतक की टीम ने इन “चिन्हित” बूथों का पता लगाना शुरू किया. टीम ऐसी तीन जगहों पर लोगों से मिली, जिनके पास आधार या मतदाता पहचान पत्र के अलावा कुछ नहीं था. जिनमें से कुछ ने दावा किया कि वे यहां पैदा हुए थे, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि उनके माता-पिता कहां से आए थे. एक इलाके में 20 से 25 साल के बीच के युवाओं के पास कोई भी सरकारी पहचान पत्र नहीं था, और जो उस व्यवस्था से पूरी तरह कटे हुए थे जो अब उन्हें मिटाने की धमकी दे रही थी. इसी सिलसिले में आजतक की टीम दिघलबैंक ब्लॉक के रसुंडांगी गांव में पहुंची. जहां एक 32 साल के मुखिया ने कहा कि उसके पास तीन बांग्लादेशी महिलाएं आई हैं, जो सबूत हैं कि घुसपैठ हो रही है. जब टीम वहां पहुंची, तो वहां तीन मुस्लिम महिलाएं थीं, जिनमें से 2 विधवा थीं, जो विधवा पेंशन प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करने आई थीं. तीसरी ने बताया कि उसका पति मानसिक रूप से अस्वस्थ था. वह आर्थिक मदद लेने आई थी. उनमें से किसी के पास अपने पतियों के आधार कार्ड की फोटोकॉपी के अलावा कुछ नहीं था. न मृत्यु प्रमाण पत्र, न विवाह पंजीकरण, न वंशावली.

    सरकारी रजिस्टर में नाम ही पहचान का आधार

    जब आजतक ने उनसे बात की, तो वो खुलकर बात करने लगीं. एक महिला ने बताया कि उसका पति आठ साल पहले मर गया था, दूसरी ने कहा कि उसका पति उसे छोड़कर दूसरी शादी कर चुका है, उन्होंने मुझसे कहा कि जितना पैसा लगेगा दे देंगे, बस हमारे कागज़ बन जाएं. मुखिया ने डांटते हुए कहा कि घूस दे रही हो? यहां ये नहीं चलता. उन्होंने उनसे 2007 की पारिवारिक सूची में अपने पति का नाम ढूंढ़ने को कहा, लेकिन महिलाएं ऐसा नहीं कर पाईं. जब एक महिला ने धीरे से आजतक की रिपोर्टर से कहा कि आप ही साइन कर दीजिए दीदी. मुखिया नहीं करेगा. मतलब साफ था कि उनके लिए सरकारी रजिस्टर में एक नाम ही उनकी पूरी पहचान है. अगर वो नाम न हुआ, तो वे नागरिक नहीं हैं.

    महिलाएं घुसपैठिया नहीं, व्यवस्था की शिकार

    इनमें से एक महिला के चेहरे-मोहरे में नेपाली झलक थी, लेकिन उसका मुस्लिम नाम सिस्टम की समझ में नहीं आ रहा था. ये सीमांचल की खासियत है- यहां भाषा, नस्ल, और पहचान की रेखाएं धुंधली हैं. वर्षों से लोग नेपाल, बांग्लादेश से आए हैं, कुछ काम के लिए, कुछ शादी के कारण, लेकिन हमेशा मजबूरी में. ये महिलाएं कोई साजिश नहीं हैं. ये सिस्टम की ग़लतफहमी की शिकार हैं. उन्हें खुद नहीं पता था कि एक दिन उनकी नागरिकता पर सवाल उठेगा, वो भी सिर्फ इसलिए कि उनके पास एक कागज़ नहीं है. वो सरकार से कुछ नहीं मांग रहीं, बस इतना चाहती हैं कि उन्हें इस देश का नागरिक माना जाए, जहां वे जन्मी थीं, पली-बढ़ीं, और जहां उन्होंने अपने पति और बच्चों के लिए सब कुछ सहा.

    SIR का बोझ क्यों उठा रहीं औरतें?

    बिहार में SIR प्रक्रिया अवैध घुसपैठ की पहचान के लिए ज़रूरी हो सकती है, लेकिन इसकी सबसे बड़ी क़ीमत उन महिलाओं को चुकानी पड़ रही है, जो पहले ही समाज और परिवार से छूटी हुई हैं. उन्हें अब राज्य भी नकार रहा है. यह प्रक्रिया उनके अस्तित्व को मिटा देने का हथियार बन चुकी है. ये SIR की अदृश्य, अघोषित कीमत है. जो विधवा और अदृश्य महिलाओं को झेलनी पड़ रही है.

    —- समाप्त —-



    Source link

    Latest articles

    Hoff Names David Tourniaire-Beauciel Head of Design, the Designer Responsible for Balenciaga’s Triple S Sneaker

    LONDON — The Spanish sneaker brand Hoff founded by Fran Marchena in 2017...

    200 गैस सिलेंडरों में धमाके का Live CCTV, रात के सन्नाटे में 10 KM तक गूंजी आवाज, जयपुर-अजमेर हाइवे पर खौफनाक मंजर

    जयपुर-अजमेर हाइवे मंगलवार रात जिंदा लपटों का मैदान बन गया और इसका पूरा...

    More like this