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    पांच बार नामित, फिर भी नहीं मिला नोबेल शांति पुरस्कार… क्या गोडसे ने गांधी की अवॉर्ड पाने की आखिरी उम्मीद भी छीन ली थी?

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    ‘स्वाभाविक है कि उनकी (दलाई लामा) तुलना महात्मा गांधी से की जाए, जो इस सदी के सबसे महान शांति के प्रवक्ताओं में से एक थे. दलाई लामा स्वयं को गांधी का उत्तराधिकारी मानते हैं. कई बार यह प्रश्न उठा है कि महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार क्यों नहीं मिला.’ यह बात 1989 में नॉर्वेजियन नोबेल कमेटी के चेयरमैन एगिल आरविक ने कही थी, जब तिब्बत के निर्वासित धर्मगुरु दलाई लामा को यह प्रतिष्ठित पुरस्कार दिया गया.

    दलाई लामा को पुरस्कार देते हुए आरविक ने कहा था कि 1989 का नोबेल शांति पुरस्कार महात्मा गांधी की स्मृति को श्रद्धांजलि है.

    आज नोबेल कमेटी गांधी को ‘मिसिंग लॉरेट’ (अप्राप्त नोबेल विजेता) कहती है. गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए पांच बार नामित किया गया- 1937, 1938, 1939, 1947 और 1948 में.

    1948 में उनका अंतिम नामांकन महज कुछ दिन पहले ही हुआ था, जब 30 जनवरी को नाथूराम गोडसे ने उनकी हत्या कर दी. गोडसे एक हिंदू राष्ट्रवादी थे, जो गांधी के मुसलमानों के प्रति कथित झुकाव और पाकिस्तान के निर्माण के समर्थन के विरोध में थे.

    गांधी उस वर्ष नोबेल पुरस्कार की शॉर्टलिस्ट में थे, और तमाम संकेत हैं कि अगर वे जीवित होते तो उन्हें यह पुरस्कार मिल सकता था. लेकिन उस समय नोबेल पुरस्कार मरणोपरांत नहीं दिया जाता था. 1948 में शांति का नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया. तब नोबेल समिति ने कहा था, “कोई उपयुक्त जीवित उम्मीदवार नहीं है.”

    बाद में नोबेल समिति ने गांधी को पुरस्कार न दे पाने पर कई बार खेद जताया. खासकर 1989 और 2006 में. चूंकि 1948 का नामांकन गांधी की हत्या से महज कुछ दिन पहले हुआ था, यह सवाल अब और अधिक गंभीर हो गया है कि क्या गोडसे की गोलियों ने सिर्फ गांधी का जीवन ही नहीं, बल्कि उनका नोबेल शांति पुरस्कार भी छीन लिया? कारण, भारत को अहिंसा के रास्ते आज़ादी दिलाने वाले गांधी, 1947 के बाद सबसे उपयुक्त प्रत्याशी हो सकते थे. लेकिन तब नोबेल पुरस्कार केवल जीवित व्यक्तियों या संगठनों को दिया जाता है.

    आज जब नोबेल शांति पुरस्कार को लेकर कई विवाद और हल्की-फुल्की घोषणाएं होती हैं, जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का विवादित नामांकन, जिसे इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू और पाकिस्तान के सेना प्रमुख असीम मुनीर ने समर्थन दिया, तब यह सवाल और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि फिर गांधी जैसे व्यक्ति को यह सम्मान क्यों नहीं मिला?

    आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने भी मजाक में खुद को शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए योग्य बता दिया. आज यह पुरस्कार दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित सम्मानों में गिना जाता है. लेकिन यह जानना जरूरी है कि क्यों गांधी को यह सम्मान नहीं मिला, और क्या उनकी हत्या ने उनके सबसे करीब आए इस मौके को भी उनसे छीन लिया?

    अहिंसा से आजादी की लड़ाई लड़ी, फिर भी नहीं मिला शांति पुरस्कार

    महात्मा गांधी का योगदान शांति और अहिंसा के क्षेत्र में अतुलनीय है. उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह की नीति के जरिए भारत की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लिया. उन्होंने दुनिया को दिखाया कि बिना हथियार उठाए भी अन्याय के खिलाफ लड़ा जा सकता है. उन्होंने भारत की आजादी के लिए नमक सत्याग्रह (1930) और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) जैसे अनेक आंदोलनों का नेतृत्व किया, जिनमें उन्होंने हिंसा के खिलाफ जन-शक्ति का प्रयोग किया. उनके सिद्धांतों ने अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर और दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला जैसे नेताओं को भी प्रेरित किया.

    1989 में नोबेल समिति ने स्वयं माना कि गांधी इस सदी के सबसे महान शांति प्रवर्तकों में से एक थे. फिर भी, पांच बार नामांकन के बावजूद उन्हें यह पुरस्कार कभी नहीं मिला, और वे इतिहास में ‘मिसिंग लॉरेट’ बनकर रह गए.

    नोबेल समिति ने गांधी की शांति को राजनीतिक समझा

    गांधी को 1948 से पहले 1937, 1938, 1939 में भी नोबेल के लिए नामित किया गया था, लेकिन समिति में कई लोगों को लगता था कि गांधी का आंदोलन राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए था, न कि वैश्विक शांति के लिए. नोबेल इतिहासकार ओयविंद टॉनसन ने बताया कि समिति के कुछ सदस्य गांधी के आंदोलन को अत्यधिक राजनीतिक मानते थे. उनका मानना था कि गांधी की अहिंसा वैश्विक नहीं, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में थी.

    नोबेल इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक गेर लुंडेस्टाड के अनुसार, 1937 की रिपोर्ट में गांधी को स्वतंत्रता सेनानी, शांतिवादी और राष्ट्रवादी कहा गया था, पर यह भी कहा गया कि उनके दृष्टिकोण की सार्वभौमिकता संदेहास्पद है. इसके अलावा, समिति को यह भी लगता था कि गांधी की अहिंसा पूर्णतः निरपेक्ष नहीं थी. उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की भागीदारी को कुछ शर्तों पर समर्थन देने की बात कही थी.

    विभाजन की हिंसा ने गांधी की उम्मीदों को और कमजोर किया

    1947 में गांधी का नामांकन ऐसे समय हुआ, जब देश विभाजन की त्रासदी झेल रहा था. हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़के हुए थे. समिति के कुछ सदस्य मानते थे कि गांधी इन दंगों को रोकने में पूरी तरह सफल नहीं हो पाए, और ऐसे समय में उन्हें सम्मान देना उपयुक्त नहीं होगा.

    इतिहासकार रामचंद्र गुहा मानते हैं कि समिति के निर्णय पर उस वक्त की साम्प्रदायिक हिंसा का असर पड़ा. साथ ही, नॉर्वे जैसे तटस्थ देश ब्रिटेन जैसे साम्राज्यशक्ति के विरोध में किसी व्यक्ति को सम्मान देने से भी हिचकते थे.

    गेर लुंडेस्टाड ने कहा, ‘1900 से 1960 तक नोबेल पुरस्कार पर यूरोप और अमेरिका का वर्चस्व था. यह उस समय की वैश्विक सत्ता संरचना को दर्शाता है.’

    नोबेल समिति के अध्यक्ष की डायरी से पता चलता है कि 1947 की चर्चा के दौरान कुछ गलत मीडिया रिपोर्टों ने भी फैसला प्रभावित किया. जैसे कि एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि गांधी पाकिस्तान के खिलाफ धमकी दे रहे हैं, जो तथ्यात्मक रूप से गलत था.

    गांधी की हत्या से पहले ही आ चुका था अंतिम नामांकन

    गांधी का अंतिम नामांकन जनवरी 1948 में हुआ था. यह नामांकन कई स्रोतों से आया. पूर्व विजेताओं, धार्मिक संगठनों, क्वेकर्स और अमेरिकी शांति कार्यकर्ता एमिली ग्रीन बाल्क से. भारत से बंबई के मुख्यमंत्री बी.जी. खेर, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत और लोकसभा के पहले अध्यक्ष गणेश वासुदेव ने उनका नाम आगे बढ़ाया.

    लेकिन गांधी की हत्या ने सारी उम्मीदों पर विराम लगा दिया. उनकी उस वर्ष की नामांकन प्रक्रिया की अंतिम तारीख से सिर्फ दो दिन पहले हत्या कर दी गई.

    1948 में किसी को नहीं दिया गया नोबेल शांति पुरस्कार

    18 नवंबर 1948 को नोबेल समिति ने घोषणा की कि इस वर्ष शांति का नोबेल पुरस्कार नहीं दिया जाएगा, क्योंकि कोई उपयुक्त जीवित उम्मीदवार नहीं है. यह बात अप्रत्यक्ष रूप से यह स्वीकार करती है कि गांधी को पुरस्कार दिया जा सकता था, अगर वे जीवित होते. 2006 में गेर लुंडेस्टाड ने भी कहा था, ‘हमारे 106 साल के इतिहास की सबसे बड़ी चूक यह है कि महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार नहीं दिया गया.’

    गोडसे की गोलियों ने गांधी का जीवन ही नहीं, बल्कि उनका नोबेल सम्मान भी छीन लिया. समिति के आधिकारिक रिकॉर्ड में साफ है. 1948 में गांधी का चयन लगभग तय था, लेकिन उनकी मृत्यु ने उसे असंभव बना दिया. उस समय नियम यह था कि मरणोपरांत पुरस्कार केवल तभी दिया जा सकता है, जब व्यक्ति की मृत्यु समिति के निर्णय के बाद हो. गांधी का मामला इस श्रेणी में नहीं आता था.

    बाद में बदले नियम, लेकिन गांधी को फिर भी नहीं मिला सम्मान

    बाद में नोबेल समिति ने मरणोपरांत पुरस्कार देने के नियमों में ढील दी. 1961 में स्वीडिश राजनयिक डैग हैमरशोल्ड को मरणोपरांत शांति पुरस्कार दिया गया. लेकिन गांधी को कभी यह सम्मान नहीं मिला. गांधी किसी संगठन से नहीं जुड़े थे, उन्होंने कोई वसीयत या संपत्ति नहीं छोड़ी थी और पुरस्कार राशि का कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी नहीं था. यही कारण था कि समिति ने उन्हें मरणोपरांत भी सम्मानित नहीं किया.

    क्या गांधी को 1948 में नोबेल मिल जाता अगर वे जीवित होते?

    क्या यह कहना सही होगा कि यदि गांधी 1948 में जीवित रहते, तो उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिल ही जाता? सभी परिस्थितिजन्य साक्ष्य तो यही कहते हैं. नोबेल कमेटी के चेयरमैन गुन्नार जान की डायरी से पता चलता है कि उस वर्ष गांधी के नाम पर गंभीर विचार हुआ. उन्होंने लिखा, ‘मेरे लिए यह साफ है कि मरणोपरांत पुरस्कार देना वसीयतनामा के खिलाफ होता.’

    समिति के पांच में से तीन सदस्य उनसे सहमत थे. केवल एक सदस्य क्रिश्चियन ऑफ्टेडाल गांधी को पुरस्कार देने के पक्ष में थे. बाद में कुछ लोगों ने यह भी कहा कि 1948 में जिनके लिए ‘कोई उपयुक्त जीवित उम्मीदवार नहीं’ कहा गया, वह गांधी नहीं बल्कि स्वीडिश राजनयिक काउंट बर्नाडोट थे, जो फिलीस्तीन में जायोनिस्टों द्वारा मार दिए गए थे. लेकिन रिकॉर्ड बताते हैं कि बर्नाडोट 1948 के 79 नामांकित लोगों में शामिल ही नहीं थे.

    अतः यह स्पष्ट है कि अगर गांधी एक साल और जीवित रहते, तो नोबेल शांति पुरस्कार संभवतः उन्हें ही मिलता. ब्रिटेन स्थित इतिहासकार प्रीतिपुष्पा मिश्रा कहती हैं, ‘चाहे गांधी को पुरस्कार मिला या नहीं, उनकी छाया हर नोबेल विजेता पर रहती है. इसी में उनका असली नोबेल छिपा है.’

    —- समाप्त —-



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