मेरे पापा कहते थे, तू मेरी अधूरी ख्वाहिश है… अब पूरी हो गई. उन्होंने उनका सपना पूरा करने के लिए मेडिकल की पढ़ाई शुरू कर दी. डॉक्टरी बुरी नहीं लगी पर हर मरीज को देखते हुए ऐसा लगा जैसे मैं किसी और का सपना जी रहा हूं. जैसे मैं कोई उधार चुका रहा हूं, वो भी अपने मन के खिलाफ… हाल ही में एक डॉक्टर के मुंह से ये बात सुनते हुए मन में ये सवाल आया कि ये एक ऐसी पेचीदा स्थिति है जिसमें न परिवार को गलत ठहराया जा सकता है न बच्चों को…आखिर इसके पीछे का मनोविज्ञान क्या है. इसी रिसर्च में सामने आया एक शब्द Sacrifice Debt यानी कुर्बानी का कर्ज. आइए इसे विस्तार से समझते हैं.
दुनियाभर में हजारों पहले-पहल कॉलेज जाने वाली पीढ़ियों की कहानी में माता-पिता के बलिदान का बड़ा अध्याय जुड़ा होता है. खासकर उन परिवारों में जहां माता-पिता ने अपना सब कुछ छोड़कर बच्चों के लिए अच्छा भविष्य चुना. असल में माता-पिता का ये कर्ज पैसे का नहीं है कि आप पैसा देकर चुका दें, अक्सर बच्चों को इसे अपनी पहचान देकर चुकाना होता है.
‘तू कुछ बड़ा करेगा’ पर वो ‘कुछ’ क्या?
मेंटल हेल्थ थेरेपिस्ट Nahid Fattahi ने एक लेख में लिखा कि ये ऐसा अदृश्य दबाव होता है जिसमें हमें अपने माता-पिता की कुर्बानियों का हिसाब देना होता है और ये भुगतान हम पैसे से नहीं, अपने फैसलों से करते हैं. इस कर्ज को लेकर किसी ने कोई बातचीत नहीं की, कोई वादा नहीं हुआ. फिर भी ये हमें एक चुपचाप लिपटी हुई डोर की तरह बांध लेता है. ‘तू कुछ बड़ा करेगा’ पर वो ‘कुछ’ क्या, ये तय करने का हक भी उनके पेरेंट्स का था?
देखा जाए तो ज्यादातर हर परिवार में एक वाक्य चलता है कि हमने तुम्हारे लिए सब कुछ किया…और इसी एक वाक्य से बच्चे की पसंद-नापसंद, करियर, शादी और यहां तक कि सोचने का तरीका भी तय हो जाता है. कोई लड़की जिसने मन से पत्रकारिता करनी चाही थी, आज अमेरिका में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है. घरवाले खुश हैं, उन्हें लगता है कि अच्छी नौकरी, ग्रीन कार्ड, ब्रैंडेड कार सब पाकर बेटी सफल हो गई है. लेकिन बेटी मन ही मन ऐसा महसूस करती है कि जैसे वो अपनी नहीं, किसी और की ज़िंदगी जी रही है.
शर्तों में बंधा माता-पिता का प्यार
बहुत से परिवारों में ‘प्यार’ की परिभाषा obedience यानी आज्ञाकारिता से जोड़ दी जाती है. एक ऐसी शर्त जिसमें ये बात छुपी होती है कि अगर तूने मना किया तो हमारा प्यार ठुकरा दिया. यही वो जगह है जहां Sacrifice Debt मानसिक स्वास्थ्य को सबसे ज्यादा चोट पहुंचाता है. थेरेपिस्ट फताही के मुताबिक जब प्यार, आज्ञा से बंध जाए, तो वो बिना बोले guilt और anxiety पैदा करता है.
भारत में बेटियां बनती हैं सपना पूरा करने का जरिया और बेटे पर जिम्मेदारी
मनोवैज्ञानिक डॉ विधि एम पिलनिया कहती हैं कि भारत जैसे समाजों में ये बोझ अक्सर जेंडर के हिसाब से बंटता है. यहां अक्सर बेटे पर कम उम्र से ही ‘घर का सहारा’ बन जाने का दबाव होता है. वहीं बेटियां मां-बाप की अधूरी इच्छाओं को पूरा करने वाली ‘आदर्श संतान’के रूप में देखी जाती हैं. कई बेटियां एक ही साथ इमोशनल केयरटेकर और संस्कृति की रखवाली करने वाली बन जाती हैं. जब ऐसे बच्चे अपने मन की बात करना चाहते हैं, वो कहते हैं कि ‘मैं खुश नहीं हूं, ‘मैं कुछ और करना चाहता हूं’ तो जवाब मिलता है कि ‘हमने तुम्हारे लिए सब कुछ किया और तुम यही बोल रहे हो?’
जहां बातचीत नहीं, वहां अपराधबोध
डॉ पिलनिया कहती हैं कि जहां पर दो लोगों के बीच बातचीत नहीं हो पाती, वहां अलग ही तरह का अपराध बोध जन्म लेता है. जब हम खुलकर नहीं बता पाते कि हां हम आपके आभारी हैं लेकिन खुद के लिए भी जीना चाहते हैं. खुलकर सच बोलने के लिए स्पेस न होने से Sacrifice Debt का अहसास लगातार बांधता रहता है. इसे अहसानफरामोशी माना जाता है, जबकि ये ईमानदारी है. अगर आप ये पढ़ रहे हैं और माता-पिता हैं तो एक वाक्य आपकी संतान को बहुत कुछ दे सकता है, बच्चे से आपको कहना चाहिए कि
तुम्हें अपने जिंदगी के फैसलों को खुद लेना है. मैंने गाइड किया अगर तुम्हें कुछ और फैसला लेना है तो तुम्हारी मर्जी है. बाकी मैंने तुम्हारे लिए जो किया, वो प्यार से किया न किसी सौदेबाजी से.
सफलता का मतलब बदलना जरूरी
हमारे समाज में सफलता का मतलब डिग्री, नौकरी, शादी, गाड़ी, फ्लैट को माना जाता है. लेकिन असल सफलता में खुशी, मानसिक शांति, आज़ादी, अपनी पहचान होनी चाहिए. Sacrifice Debt एक हकीकत है, पर ये आपकी किसी की पहचान नहीं बननी चाहिए. हम अपने माता-पिता को प्यार करते हैं. उनकी कुर्बानियों को सम्मान देना हमारी फितरत है. फिर भी हमें ये समझना होगा कि हम भी अपनी एक ज़िंदगी लेकर आए हैं जिसे सिर्फ निभाना नहीं, जीना है.