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    क्यों इस बार बिहार के चुनावी सीन से बाहर दिख रहे हैं बाहुबली… न किले सेफ हैं, न उम्मीदवारी मजबूत

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    बिहार (Bihar) में सियासत नई करवट लेती दिख रही है. एक समय बिहार की राजनीति में बाहुबली नेताओं की बहार हुआ करती थी, लेकिन वक्त के साथ उनका असर और दबदबा दोनों ही कम होता गया. बाहुबलियों ने अपराधियों के साथ सियासी केमिस्ट्री बनाकर अपनी राजनीति को नई धार दी, लेकिन इस बार के चुनावी सीन से बाहर नजर आ रहे हैं. न ही उनके किले सुरक्षित दिख रहे हैं और न ही उनकी उम्मीदवारी मजबूत नजर आ रही. 

    साठ के दशक में भले ही बिहार की राजनीति में बाहुबल का प्रयोग हुआ, फिर बाहुबलियों ने सियासत में कदम रखना शुरू किया तो सिलसिला ही चल पड़ा. नब्बे के दशक से लेकर 2010 तक बिहार की राजनीति में बाहुबली का चरम माना जाता है. ये वो खास समय है, जब बाहुबली नेताओं में परिवारवाद का चलन बढ़ गया. वक्त के बदलन क साथ ही बाहुबलियों की राजनीति भी बदलने लगी. 

    बिहार में आनंद मोहन से लेकर अनंत सिह, शहाबुद्दीन, राजबल्लभ यादव, प्रभानाथ सिंह, रामा सिंह, मुन्ना शुक्ला, सुनील पांडेय और पप्पू यादव जैसे बाहुबलियों की राजनीति में सियासी दबदबा कायम रहा. कानूनी शिकंजा कसा और जेल गए तो उन्होंने अपनी सियासी विरासत अपने परिवार को सौंप दी, लेकिन इस बार के चुनाव के सियासी चर्चाओं से बाहर बाहुबली नजर आ रहे हैं. 

    आनंद मोहन का बेटा किससे लड़ेगा चुनाव?

    बाहुबली नेता और पूर्व सांसद आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद जेडीयू से सांसद है, लेकिन उनके बेटे चेतन आनंद 2020 में आरजेडी से विधायक बने थे. इस तरह से आनंद मोहन का परिवार जेडीयू में जरूर है, लेकिन सियासी चर्चा में नहीं है. आनंद मोहन के साथ नीतीश कुमार सियासी मंच शेयर करने से भी परहेज कर रहे हैं, क्योंकि उनकी बाहुबली की छवि से राजनीतिक नुकसान का खतरा भी है. 

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    आनंद मोहन की अस्सी और नब्बे के दशक में जिस तरह से राजनीतिक जलवा था, वो अब फीका पड़ा है.  शिवहर के आसपास के इलाके में आनंद मोहन का राजपूत समुदाय के बीच मजबूत पकड़ मानी जाती थी, जिसके सहारे वो अपने राजनीतिक वर्चस्व को भी कायम करने में सफल रहे. तिरहुत डिवीजन का सियासी मिजाज में पूरी तरह से आनंद मोहन तय करते थे, लेकिन अब स्थिति बदल गई है. आंनद मोहन को उम्र कैद की सजा हुई था, जिसे माफ किए जाने के बाद जेल से बाहर आए हैं. 

    आनंद मोहन की पत्नी जरूर जेडीयू से लोकसभा सांसद हो गई हैं, लेकिन उनके बेटे की नाव सियासी मंझधार में फंसी हुई है. जेडीयू ने अभी तक टिकट का कोई सिंग्नल नहीं दिया है. विधायक होने के नाते आनंद मोहन के बेटे चेतन को जरूर टिकट मिल सकता है. लेकिन आंनद मोहन के लिए अपने किसी करीबी को पहले की तरह चुनाव लड़ाना आसान नहीं है. 

    अनंत सिंह की पत्नि का क्या होगा?

    बिहार के मोकामा क्षेत्र में बाहुबली अनंत सिंह की एक समय तूती बोला करती थी.  मोकामा क्षेत्र में ही नहीं बल्कि मुंगेर जिले में उनका दबदबा पूरी तरह से कायम था. अनंत सिंह का जेल से अंदर और बाहर आने का सिलसिला लगातार जारी है. कोर्ट से सजा होने के चलते ही पहले ही अपनी विधायकी गंवा चुके हैं और उनकी सियासी विरासत उनकी पत्नी नीलम देवी संभाल रही है. बाहुबली नेता आनंद सिंह अब तक 4 बार विधायक रह चुके हैं. अनंत सिंह दो बार जदयू के टिकट पर चुनाव जीते हैं तो एक बार निर्दलीय चुनाव जीतने में कामयाब हुए, लेकिन अब चुनाव सीन से बाहर हैं. 

    जेडीयू से अलग होकर 2020 में आरजेडी से पहले अनंत सिंह खुद मोकासा से विधायक बने और जब सजा हुई तो उन्होंने पत्नी नीलम देवी को विधायक बनवाने में सफल रहे. 2024 के चुनाव से ठीक पहले अनंत सिंह का दिल जेडीयू के लिए पसीज गया और उन्होंने ललन सिंह को जीतने में अहम रोल अदा किया. इसके बाद ही नीलम देवी ने सियासी पैंतरा बदलते हुए जेडीयू के खेमे में खड़ी नजर आ रही हैं, लेकिन नीतीश कुमार चुनाव में प्रत्याशी बनाएंगे कि नहीं ये कन्फर्म नहीं है. 

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    शहाबुद्दीन की विरासत का क्या होगा?

    लालू यादव के दौर में बिहार में बाहुबली शहाबुद्दीन की सियासी तूती बोला करती थी, लेकिन दो दशक पहले सत्ता के परिवर्तन होने के साथ उनकी उलटी गिनती शुरू हो गई थी. शहाबुद्दीन को पहले सजा हुई और उसके बाद जेल में रहते हुए कोरोना काल में मौत हो गई. शहाबुद्दीन की विरासत पहले उनकी पत्नी हिना शहाब ने संभाली, लेकिन चुनावी बाजी जीत नहीं सकी. 

    आरजेडी छोड़कर हिना शहाब ने 2024 में निर्दलीय लोकसभा चुनाव लड़ी, उसके बाद भी जीत का स्वाद नहीं चख सकी. शहाबुद्दीन का सियासी दबदबा पूरी तरह से सिवान इलाके में कमजोर पड़ा है. शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब और उनके बेटा ओसामा शहाब आमचुनाव के बाद आरजेडी में शामिल हो गए, लेकिन 2025 के विधानसभा चुनाव में सीट और टिकट दोनों ही अभी तक कन्फर्म नहीं है.

    हालांकि, हिना शहाब ने अपने बेटे ओसामा को रघुनाथपुर सीट से चुनाव लड़ाने की तैयारी में है, लेकिन वहां से आरजेडी से विधायक बने हरिशंकर यादव हैं. ऐसे में सीट को लेकर पेंच फंस सकता है, क्योंकि आरजेडी के लिए हरिशंकर यादव का टिकट काटना आसान नहीं होगा.

    सूरजभान सिंह का दबदबा कम हुआ…

    बिहार के बाहुबलियों में सुरजभान सिंह का अपना दबदबा हुआ करता था. मोकामा से विधायक रहे हैं और मुंगेर से उनकी पत्नी सांसद रही हैं. सूरजभान सिंह को हत्या के मामले में सजा हो चुके हैं, जिसके चलते वो खुद चुनाव नहीं लड़ सकते हैं. इसके अलावा मुंगेर बेल्ट में ललन और अनंत सिंह का दबदबा बढ़ने के साथ ही सुरजभान का राजनीतिक असर कम होता गया.  

    सूरजभान का परिवार फिलहाल चिराग पासवान की पार्टी एलजेपी (आर) में है, लेकिन एनडीए का हिस्सा जेडीयू और एलजेपी दोनों है. मुंगेर सीट से अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी विधायक हैं, लेकिन आरजेडी को छोड़कर जेडीयू में है. ऐसे में मोकामा सीट से एनडीए के टिकट पर सुरजभान की पत्नी वीणा देवी चुनाव लड़ेंगी या फिर अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी. इस तरह से दोनों ही बाहुबली परिवार का सियासी साख दांव पर लगी है, लेकिन राजनीतिक दशा और दिशा तय नहीं है.

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    बिहार के बाहुबली परिवारों का क्या होगा?

    बिहार के बाहुबली नेताओं में सुनील पांडेय की भी गिनती होती है. सुनील पांडेय के बेटे विशाल पांडेय तरारी से विधायक हैं. सु्नील पांडेय खुद एमएलसी हैं और उनके भाई हुलास पांडेय भी खुद को स्थापित करने में जुटे हैं. बिहार के भोजपुर इलाके में सुनील पांडेय की तूती बोला करती थी, लेकिन अब असर कम हुआ है. सुनील के धुर विरोधी सुदामा यादव आरजेडी से सांसद हैं. सुनील पाण्डे के बेटे विशाल प्रशांत बीजेपी से विधायक निर्वाचित हुए है, जिन्हें बीजेपी से टिकट मिल सकता है. लेकिन सुनील पांडेय पहले की तरह से अपना वर्चस्व जमाना आसान नहीं है.

    लालगंज के पूर्व विधायक विजय कुमार शुक्ला, जिन्हें मुन्ना शुक्ला के नाम से भी जाना जाता है. उन्होंने भी अपनी पत्नी अन्नू शुक्ला को विधायक बनाया, लेकिन बीजेपी छोड़कर आरजेडी का दामन थाम चुके हैं. आरजेडी से मुन्ना शुक्ला के परिवार को टिकट मिलेगा कि नहीं, ये कन्फर्म नहीं है. लालू यादव के राज में बाहुबली प्रभुनाथ सिंह की तूती बोला करती थी, लेकिन अब अदालत से सजा होने और आरजेडी का असर कम होने से उनकी राजनीति हाशिए पर पहुंच गई है. 

    प्रभुनाथ सिंह के बेटे रणधीर सिंह भी राजनीति में हैं और विधायक रहे हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में प्रभुनाथ सिंह के बेटे रणधीर ने छपरा और भतीजे सुधीर सिंह ने तरैया सीट से चुनाव लड़ा था. दोनों को ही हार का सामना करना पड़ा था. रणधीर सिंह ने लोकसभा चुनाव के समय आरजेडी छोड़ जेडीयू का दामन थाम लिया था. वह फिलहाल जेडीयू के प्रदेश महासचिव हैं 2025 में टिकट मिलेगा या नहीं कन्फर्म नहीं है. 

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    बिहार के बाहुबली में राजन तिवारी का भी अपना नाम हुआ करता था. तिवारी परिवार भी सियासत में सक्रिय रहा है. राजन की मां कांति देवी ब्लॉक प्रमुख रह चुकी हैं. राजन के बड़े भाई राजू तिवारी भी राजनीति में हैं. गोविंदगंज विधानसभा सीट से विधायक रह चुके राजू फिलहाल चिराग पासवान की अगुवाई वाली एलजेपी (आर) के प्रदेश अध्यक्ष हैं, लेकिन राजन तिवारी के परिवार क्या विधानसभा का सफर तय कर पाएगा, ये कहना मुश्किल है.

    बिहार में किशोर सिंह उर्फ रामा सिंह ने हाजीपुर संसदीय सीट के तहत आने वाली महनार विधानसभा सीट से विधायकी का चुनाव लड़कर चुनावी राजनीति में कदम रखा था. रामा सिंह पांच बार के पूर्व विधायक हैं और एक बार सांसद भी रहे हैं. 2020 में आरजेडी से विधानसभा चुनाव लड़े थे, लेकिन 2024 में एलजेडी का दामन लिया. है. ठाकुर नेता माने जाते हैं और उनकी दबंग छवि भी है, लेकिन 2025 में अब देखना होगा कि चुनावी पिच पर उतरते हैं कि नहीं? 

    पूर्णिया से निर्दलीय सांसद पप्पू यादव एक समय कोसी इलाके में दबंग छवि वाले बाहुबली नेता माने जाते थे, लेकिन अब अपनी छवि को बदलने में जुटे हैं. पप्पू यादव का सियासी असर कम हुआ है,  जिसके चलते उनकी पत्नी रंजीता रंजन को लगातार दो बार चुनाव हारना पड़ा है. हालांकि, पप्पू यादव अपनी छवि को बदलने में जुटे हुए हैं, लेकिन सियासी प्रभाव बहुत कम हुई है. 

    बिहार में क्यों कमजोर हो रही बाहुबली सियासत?

    राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो पिछले कुछ सालों से बाहुबलियों का राजनीतिक तेवर राजनेताओं के समानांतर हो गया है. जैसे अगर कोई बाहुबली जेल जाता है तो उसकी जगह राजनीति में उसकी पत्नी या बेटा आता है. अनंत सिंह, सूरजभान, आनंद मोहन, सुरेंद्र यादव सरीखे बाहुबली में देखा जा सकता है. ये बाहुबली प्रत्यक्ष तौर पर चुनावी राजनीति में आने के बाद राजनेता की तरह ही वंशवाद को प्रश्रय देते हैं, लेकिन बदले हुए दौर में उनके लिए अपने सियासी दबदबे को बनाए रखना आसान नहीं है. 

    बिहार की राजनीति में लगातार बाहुबलियों का प्रभाव कम होता दिख रहा है. राजनीतक दल भी अब टिकट देने से परहेज कर रहे हैं. पप्पू यादव को आरजेडी और कांग्रेस दोनों ने प्रत्याशी नहीं बनाया, उसकी वजह भले ही कुछ और रही हो, लेकिन राजनीतक असर कम होना भी एक कारण रहा. बाहुबलियों का जरूर अपने क्षेत्र में नेटवर्क होता है, जो अब टूट रहा है. देश की सियासत भी बदली है, जिसके चलते बाहुबली नेताओं की सियासत कमजोर पड़ी है. इसीलिए न दावेदारी मजबूत है और न ही टिकट कन्फर्म दिख रहा.

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