ओडिशा की विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ रथ यात्रा आज से शुरू हो रही है. तकरीबन 9 दिन तक चलने वाली यह परंपरा भारत की आस्था, श्रद्धा और भक्ति का वह पुण्य पर्व है, जो सदियों से एक विरासत के तौर पर हमारे बीच है. यह वह उत्सव है जब भगवान अपने भक्तों के बीच होते हैं और इस दौरान न कोई राजा रह जाता है और न ही कोई रंक. इसकी सबसे बड़ी बानगी ये है कि जगन्नाथ महाप्रभु की रथयात्रा शुरू होने से पहले पुरी के राजा, जिन्हें गजपति की उपाधि से भी जाना जाता है, वह इस दौरान साधारण वस्त्रों में पहुंचते हैं और सोने की मूठ वाली झाड़ू से रथ और रथ मार्ग बुहारते हैं.
सोने की मूठ वाली झाड़ू से मार्ग बुहारने की रीति
सोने की मूठ वाली झाड़ू से मार्ग बुहारने की इस प्रक्रिया और रीति को ‘छेरा पहरा’ नाम से जाना जाता है. दरअसल, सोना एक पवित्र धातु है, जिसे लक्ष्मी माना जाता है और झाड़ू को भी देवी लक्ष्मी का ही स्वरूप कहते हैं. झाड़ू सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक होती है, जो सिर्फ गंदगी ही नहीं बल्कि नकारात्मकता को भी बुहार देती है. यात्रा शुरू होने से पहले तीनों रथ के रास्ते को सोने की झाड़ू से साफ किया जाता है और साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण होता है. यह न सिर्फ आध्यात्मिक पवित्रता का प्रतीक है, बल्कि यह एक भाव भी दर्शाता है कि भगवान के स्वागत में कुछ भी कम नहीं रहनी चाहिए. यह परंपरा सकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह को बढ़ाती है. पुरी के वंशज राजा ही यह झाड़ू लगाते आ रहे हैं.
राजा निभाते हैं पारंपरिक प्रक्रिया
यह तो हुई परंपरा की बात, लेकिन पुरी के राजा और राज परिवार का इतिहास क्या है? परंपराओं के अनुसार पुरी के वर्तमान राजा ‘गजपति महाराजा दिब्यसिंह देब यादव’ हैं. वह भगवान जगन्नाथ के प्रथम सेवक हैं और लोग उन्हें भगवान श्री जगन्नाथ जी का ही आदेश प्रतिरूप भी मानते हैं. गजपति महाराजा दिब्यसिंह देब यादव जी रथ यात्रा से पूर्व सोने की झाडू लगा कर भगवान जगन्नाथ जी की सेवा करते हैं. वर्तमान में वह पुरी के राजा हैं और मंदिर समिति के अध्यक्ष की पारंपरिक भूमिका को भी निभा रहे हैं.
क्या है पुरी के वर्तमान राजा का इतिहास?
पुरी के राजा, दिव्यसिंह देव, भोई राजवंश के वर्तमान मुखिया हैं और उन्हें गजपति महाराजा दिव्यसिंह देव चतुर्थ के नाम से भी जाना जाता है. उनका राजवंश, भोई वंश, प्राचीन त्रिकलिंग क्षेत्र (कलिंग, उत्कल, दक्षिण कोशल) के वंशानुगत शासकों से निकला हुआ है. यह वही कलिंग है जो इतिहास में सम्राट अशोक से युद्ध के लिए प्रसिद्ध है और इसी युद्ध में हुई लाखों की मौत के बाद सम्राट अशोक को वैराग्य हो गया था.
17 साल की उम्र पर सिंहासन पर बैठे
गजपति महाराज दिव्यसिंह देव का राजवंश, भोई वंश है, लेकिन गजपति उपाधि का इतिहास पूर्वी गंग वंश से संबंधित है और 12वीं शताब्दी से श्री जगन्नाथ मंदिर से जुड़ा हुआ है. यह राजवंश “उत्कल” क्षेत्र (वर्तमान ओडिशा) में शासन करता था. दिव्यसिंह देव, गजपति महाराजा बीरकिशोर देव के पुत्र हैं और 1970 में अपने पिता की मृत्यु के बाद 17 साल की उम्र में सिंहासन पर बैठे थे. पुरी के महाराजा ही मंदिर की प्रबंध समिति के अध्यक्ष होते आ रहे हैं, जिसे 1955 के श्री जगन्नाथ मंदिर अधिनियम के तहत गठित किया गया था.
कहां से आई श्रीगजपति की उपाधि
जैसा कि पहले बताया कि गजपति, ओडिशा में पुरी के राजा द्वारा धारण की गई एक उपाधि है. इस उपाधि की शुरुआत का सिरा खोजने निकलें तो इतिहास के सहारे लगभग 12वीं सदी तक पहुंचते हैं. असल में गजपति वंश या शासन की संस्था की स्थापना पूर्वी गंग वंश के शासकों द्वारा की गई थी. इसी उपाधि का उपयोग बाद के राजवंशों ने भी किया. इसमें भी एक खास बात रही है कि इन राजवंशों के प्रमुख धार्मिक कार्यों में जगन्नाथ मंदिर का संरक्षण शामिल रहा है, साथ ही ओडिया सांस्कृतिक क्षेत्र के देवता के रूप में उनको सर्वमान्य मानते हुए उन्हें ही राज्य का संरक्षक भी स्वीकार किया गया है.
लेकिन, यह सिर्फ ‘गजपति’ की उपाधि धारण का इतिहास है. पूर्वी गंगवंश के शासकों का इतिहास अलग है और इसका विस्तृत सिरा आंध्र प्रदेश तक राज्य विस्तार के रूप में जाता है. इतिहास में दर्ज है कि ओडिशा क्षेत्र से चार शासक वंशों ने गजपति वंश की संस्था पर शासन किया है और सभी गजपति ही कहलाए और तभी से यह उपाधि प्रचलन में आई है.
पूर्वी गंग शासकों का इतिहास
असल में प्राचीन इतिहास में दर्ज कलिंग, उत्कल और दक्षिण कोसल के शासकों ने पूर्वी से दक्षिणी क्षेत्रों की विजय के साथ कई राजकीय उपाधियों का उपयोग किया, जिनमें मुख्य रूप से कलिंगाधिपति और त्रिकलिंगाधिपति की उपाधियां शामिल रही हैं. पूर्वी गंग शासकों में एक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण नाम मिलता है- अनंतवर्मन वज्रहस्त पंचम (1038 से 1078 ईस्वी तक) का, जिन्होंने त्रिकलिंगाधिपति (तीन कलिंगों के स्वामी) और सकलकलिंगाधिपति (संपूर्ण कलिंग के स्वामी) की उपाधियां धारण की. इस तरह उन्होंने अपने समकालीन सोमवंशियों के अधिकार को चुनौती दी. सोमवंशिओं का अधिकार मध्य और पश्चिमी क्षेत्रों में था.
कब हुई थी गजपति संस्था की स्थापना?
इनके उत्तराधिकारी रहे राजराजा देवेंद्रवर्मन, जिन्हें राजराजा देवा प्रथम भी कहा गया वह, 1078 ईस्वी में ही थोड़े दिनों के शासक रहे और इस समय तक उसी टकराव का सामने करते रहे जो उनके पूर्ववर्ती वज्रहस्त पंचम के दौरान से ही जारी थी. अगला नाम आता है, अनंतवर्मन चोडगंग (1078–1147) जिन्होंने लंबे समय तक सफल शासन किया और इतिहास में उनके नाम सबसे बड़ी उपलब्धि दर्ज है कि वह अपने शासनकाल में ओडिया राज्यों के एकीकरण में सफल रहे और यहीं से उन्होंने पूर्वी गंग वंश की नींव रखी. इसी पूर्वी गंग वंश में आगे चलकर अनंगभीम देव तृतीय हुए. उन्होंने गजपति संस्था की नींव रखी और भगवान जगन्नाथ को राज्य के संरक्षक देवता के रूप में स्थापित किया.
पूर्वी गंगवंश का अंतिम शासक कौन?
वंश से आने वाले ऐसे पहले शासक थे जिन्होंने 1246 ईस्वी में कपिलाश मंदिर के शिलालेख में ओडिशा के शासकों के बीच गजपति की उपाधि का उपयोग किया. इस तरह गजपति शासकों ने खुद को भगवान जगन्नाथ का भक्त स्वीकार किया और उनके वैष्णव मत को धर्म मानकर उसके संरक्षक बने. सनातन परंपरा में राजा को देवता का प्रतिनिधि माना गया है, रंजन (पालन) करता है वह राजा है. इसलिए गजपति शासकों ने खुद को भगवान को सौंपा और उनके संरक्षण में राज्य संचालन करने लगे. भानु देव चतुर्थ का नाम पूर्वी गंगवंश के अंतिम शासक के तौर पर सामने आता है, जो 1434 ईस्वी तक राजा रहे थे.
कब हुआ भोई राजवंश का उदय
इसके बाद पूर्वी गंग वंश का शासन कुछ अस्थिरता वाला भी रहा. कपिलेंद्र देव का 1434 ईस्वी में राज्याभिषेक हुआ लेकिन शासनकाल आगे नहीं बढ़ने के संकेत मिलते हैं. इसके बाद 1541 में सूर्यवंश राजवंश का शासन रहा. यहीं से भोई राजवंश का उदय भी हुआ. इस वंश ने ओडिशा की राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को नई दिशा दी, विशेष रूप से गजपति साम्राज्य के पतन के बाद. भोई वंश के शासन की शुरुआत 16वीं सदी से होती हुई आधुनिक काल तक आती है, लेकिन इतने लंबे दौर में इस राजवंश ने स्थापना-पतन और पुनर्स्थापन का काल भी देखा है. यही वजह है कि आज भी इसका असर ओडिशा की सामाजिक संरचना पर बना हुआ है.
भोई वंश की स्थापना किसने की?
भोई वंश की स्थापना गोविंद विद्याधर (1541 ईस्वी) ने की थी. वे पूर्ववर्ती गजपति राजा प्रतापरुद्र देव के प्रधान मंत्री थे. 1540 ईस्वी में प्रतापरुद्र देव की मृत्यु के बाद गजपति साम्राज्य राजनीतिक अस्थिरता से जूझने लगा, तब शासन की बागडोर गोविंद विद्याधर ने संभाली और यहीं से भोई वंश के राजनीतिक अध्याय की शुरुआत हुई. हालांकि, ऐसा दर्ज है कि गोविंद विद्याधर ब्राह्मण कुल से थे, लेकिन प्रधानमंत्री होने के कारण और प्रशासनिक कौशल के बल पर उनका सैन्य शक्ति पर भी पूरा अधिकार था, लिहाजा वह जल्द ही एक शक्तिशाली शासक के तौर पर न सिर्फ स्थापित हुए बल्कि स्थायित्व भी पा लिया, लेकिन उनका कार्यकाल छह वर्षों तक ही सीमित रहा.
…लेकिन जल्दी ही हुआ वंश का पतन
गोविंद विद्याधर के बाद की पीढ़ी में उनके बेटे चक्रधर और फिर रघुनाथ विद्याधर ने भी गद्दी संभाली, लेकिन वे स्थिरता नहीं कायम कर सके. इसके पीछे वजह रही पूर्व गजपति वंश का बचा-खुचा प्रभाव, जिसका सामना करने में भोई राजवंश के अन्य शासक असफल रहे. संघर्ष का काल लंबा चला और नतीजा हुआ कि 16वीं शताब्दी के आखिरी तक मुस्लिम आक्रमणकारियों और बंगाल के अफगानों के हस्तक्षेप ने ओडिशा की राजनीतिक स्थिति को और अधिक मुश्किल बना दिया. लिहाजा भोई राजवंश की सत्ता कमजोर होती चली गई, और 1560 ईस्वी में पहले भोई राजवंश का पतन भी दर्ज हुआ.
फिर कैसे बदला भोई वंश ने इतिहास
लेकिन… कहानी यहीं खत्म नहीं होती है, भोई राजवंश के हाथ में सत्ता आनी थी तो एक जटिल ऐतिहासिक मोड़ के बीच यह राजवंश फिर से प्रमुखता में आया और सत्ता के केंद्र में भी रहा. भोई राजवंश के इतिहास में एक महत्वपूर्ण नाम है – चक्रवर्ती मुकुंद देव. हालांकि वह गोविंद विद्याधर की वंश परंपरा से नहीं माने जाते हैं, कहीं-कहीं उन्हें चालुक्य वंश का बताया जाता है. इसे लेकर कुछ ऐतिहासिक मतभेद वाले तर्क भी हैं. यह भी कहा जाता है कि उन्होंने अगले 8 सालों तक यानी 1560 से 1568 तक भोई वंश के नाम से शासन किया.
हालांकि वह अफगान आक्रमणों को नहीं संभाल सके और 1568 में बंगाल के अफगान शासक सुलेमान कर्रानी से मुकुंद देव को हार मिली. इस पराजय के बाद कुछ समय के लिए ओडिशा पर मुगल आधिपत्य भी रहा. हालांकि कुछ समय बाद ही गजपति रामचंद्र देव प्रथम (1568–1607), जिन्हें लोकप्रिय रूप से अभिनव इंद्रद्युम्न कहा जाता है, उन्होंने ओडिशा के खुर्दा में नव भोई वंश की स्थापना की. इसे खुर्दा का भोईवंश भी कहा जाता है. इस तरह रामचंद्र देव प्रथम ने धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव को केंद्र बनाकर अपनी स्थिति को बनाए रखा. यह स्थान था – पुरुषोत्तम क्षेत्र (पुरी). गजपति राजाओं की तरह उन्होंने स्वयं को “जगन्नाथ का अधीनस्थ सेवक” घोषित किया और पुरी के जगन्नाथ मंदिर की देखरेख संभाली. यही कारण है कि 16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर आज तक भोई वंश के वंशज पुरी के गजपति महाराज के रूप में सम्मानित किए जाते हैं.
कौन थे गजपति रामचंद्र देव प्रथम?
ऐसा भी दर्ज है कि मुकुंद देव की मृत्यु के बाद उन्होंने मुगल सम्राट अकबर के साथ गठबंधन किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें ‘गजपति’ की उपाधि के रूप में मान्यता मिली है. जगन्नाथ मंदिर की मडाला पंजी उन्हें महाभारत के यदुवंश से भी जोड़ती है. गजपति रामचंद्र देव एक संस्कृत कवि और विद्वान भी थे, जिन्होंने प्रसिद्ध नाटक “श्रीकृष्णभक्तवच्छल्या चारितम” की रचना की थी. अपने प्रभाव में उन्होंने उस समय के भयंकर आक्रांता कालापहाड़ के मंदिर नष्ट अभियान को पुरी के बाहर ही रोक दिया था, इसके साथ ही कालापहाड़ के आक्रमण से क्षतिग्रस्त हिंदू मंदिरों के जीर्णोद्धार के लिए सम्मान के रूप में वह “ठाकुर राजा” की उपाधि से भी सम्मानित हुए. उनकी शाही उपाधि थी “वीर श्री गजपति वीराधि वीरवर प्रतापी रामचंद्र देव”.
धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से प्रभावशाली रहे पुरी के राजा
पुरी के गजपति महाराज, भले ही राजनीतिक रूप से शक्तिशाली नहीं रहे, लेकिन धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से उनका प्रभाव अत्यंत महत्वपूर्ण रहा. जगन्नाथ मंदिर के प्रमुख सेवक के रूप में उनकी भूमिका प्रसिद्ध रही है. रथयात्रा जैसे भव्य उत्सवों में गजपति महाराज का पारंपरिक योगदान आज भी बना हुआ है. उनकी यह भूमिका ओडिशा की जनता के बीच एक धार्मिक-सांस्कृतिक एकता का प्रतीक बन गई. इस वंश ने शैव, वैष्णव और शाक्त परंपराओं का समन्वय करते हुए ओडिशा में धार्मिक सहिष्णुता और लोक परंपराओं को जीवित बनाए रखा.
खुर्दा राज्य पर भोई का शासन 1804 ईस्वी तक रहा. ब्रिटिश शासन के दौरान 1809 ईस्वी में पुरी रियासत की स्थापना हुई और ब्रिटिश शासनकाल के दौरान भोई वंश के वंशजों को औपचारिक तौर पर पुरी के गजपति राजा के रूप में मान्यता प्राप्त रही. ब्रिटिश सरकार ने उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक स्थिति को बनाए रखा, लेकिन राजनीतिक अधिकार लगभग समाप्त कर दिए गए. आज भी गजपति महाराज पुरी के प्रमुख धार्मिक प्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्ठित हैं. उनका नाम अब “श्री श्री श्री गजपति महाराज” के रूप में लिया जाता है और वे जगन्नाथ प्रभु से जुड़ी ओडिया संस्कृति के प्रतीक माने जाते हैं.