पर्यावरणविदों ने दार्जिलिंग में हुए भूस्खलनों को एक मानव-निर्मित पारिस्थितिक आपदा बताया है. उनका कहना है कि यह दशकों से जारी जंगलों की कटाई, बिना प्लानिंग के शहरीकरण और खराब गवर्नेंस का नतीजा है जिसने हिमालय की नाजुक पहाड़ियों को खतरे के मुहाने पर ला दिया है. उनका कहना है कि अब आगे का रास्ता विकेंद्रीकृत डिजास्टर प्लानिंग, कंस्ट्रक्शन नियमों का सख्त पालन और क्लाइमेट-फ्रेंडली डेवलपमेंट से होकर ही निकलेगा. तभी क्वीन ऑफ द हिल्स यानी दार्जिलिंग को बार-बार होने वाली त्रासदियों से बचाया जा सकता है.
12 घंटे की बारिश ने उजाड़ा दार्जिलिंग
कभी सैलानियों के लिए सुकून देने वाली जगह रही दार्जिलिंग की पहाड़ियां अब तबाही का चेहरा दिखा रही हैं. लगातार 12 घंटे तक हुई बारिश ने खतरनाक भूस्खलनों की चेन को जन्म दिया जिसमें 20 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और कई लोग बेघर हो गए. शांत ढलानों पर अब मलबा और निराशा छाई है. ये निराशा हमें याद दिलाती है कि प्रकृति की मार अक्सर इंसानों की लापरवाही का नतीजा होती है.
बारिश तो बस ट्रिगर है!
नॉर्थ बंगाल साइंस सेंटर से जुड़े पर्यावरणविद सुजीत रहा ने कहा कि पहाड़ियां दशकों की उपेक्षा का खामियाजा भुगत रही हैं. जंगलों की कटाई, बिना प्लानिंग के सड़कें और बेतहाशा निर्माण ने इलाके को अस्थिर बना दिया है. बारिश तो बस एक ट्रिगर है. असली वजह ये है कि हमने पहाड़ों के साथ कैसा बर्ताव किया है. उन्होंने कहा कि यहां कोई सही डिजास्टर मैनेजमेंट प्लान नहीं है. प्रशासन को इसे हर साल की त्रासदी की तरह नहीं, बल्कि गंभीर समस्या मानना चाहिए.
अनियंत्रित विकास बना खतरा
डिजास्टर मैनेजमेंट एक्सपर्ट और सरोजिनी नायडू कॉलेज, कोलकाता के प्रोफेसर शैलेंद्र मणि प्रधान ने कहा कि दार्जिलिंग उच्च भूकंपीय क्षेत्र में आता है और स्वाभाविक रूप से भूस्खलन-प्रवण है. लेकिन यहां टूरिज्म और हाउसिंग के लिए लगातार इंफ्रास्ट्रक्चर बनाया जा रहा है, बिना किसी बिल्डिंग बायलॉ या ड्रेनेज सिस्टम का ध्यान रखे. उन्होंने बताया कि मिरिक, कुरसेओंग, कालिम्पोंग और दार्जिलिंग टाउन में ढलानों पर बहुमंजिला इमारतों का बेतहाशा निर्माण खतरे को कई गुना बढ़ा रहा है.
स्थानीय स्तर पर डिजास्टर प्लानिंग की कमी
प्रधान ने कहा कि नेशनल और स्टेट लेवल पर तो ढांचा है लेकिन जिले स्तर पर डिजास्टर मैनेजमेंट कमेटियां लगभग निष्क्रिय हैं. लोगों को यह समझाना जरूरी है कि नियम तोड़कर निर्माण करना कितना खतरनाक है. उन्होंने बताया कि दार्जिलिंग नगर पालिका की 70–80% जमीन रिहायशी मकानों के लिए दे दी गई है जो पूरी तरह अस्थिर है.
ये कोई नई त्रासदी नहीं
जेएनयू के नॉर्थ ईस्ट स्टडी सेंटर के प्रोफेसर और पर्यावरण विशेषज्ञ विमल खवास ने कहा कि ये कोई नया पैटर्न नहीं है. लेकिन इस बार तबाही का पैमाना बताता है कि प्राकृतिक कमजोरियों के साथ-साथ इंसानी दबाव कितना बढ़ गया है. उन्होंने कहा कि गोरखालैंड आंदोलन के बाद से लैंड यूज रेगुलेशन कमजोर हो गए और अनियंत्रित निर्माण व सड़क विस्तार ने हालात बिगाड़ दिए.खवास ने कहा कि सिक्किम, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में जो आपदाएं दिखती हैं, वही पैटर्न हिमालयी बेल्ट में बार-बार सामने आ रहा है.
दार्जिलिंग को लोकल डिजास्टर प्लान चाहिए
उन्होंने कहा कि गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (GTA) के पास न तो विशेषज्ञता है और न ही सही इंफ्रास्ट्रक्चर. ज्यादातर योजनाएं कोलकाता में बनती हैं, बिना लोकल टोपोग्राफी को समझे. दार्जिलिंग को लोकल स्तर पर डिजास्टर प्रिपेयर्डनेस और क्लाइमेट एक्शन से जुड़ा प्लान चाहिए.पर्यावरण कार्यकर्ता सुभाष दत्ता ने कहा कि लगातार हो रही मिट्टी कटाई से पहाड़ियों की रेत और पत्थर मैदानों में आ रहे हैं. इससे नदियों का रास्ता बदल रहा है और कई नदियों का तल आसपास की जमीन से ऊंचा हो गया है जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ गया है.
क्लाइमेट चेंज से क्लाइमेट क्राइसिस तक
पर्यावरण विशेषज्ञ सत्यदीप छेत्री ने चेतावनी दी कि पूर्वी हिमालय अब क्लाइमेट चेंज से क्लाइमेट क्राइसिस के दौर में पहुंच चुका है. उन्होंने सुझाव दिया कि हाई-रिस्क जोन से लोगों को सुरक्षित जगहों पर बसाना और प्रभावित परिवारों का पुनर्वास करना जरूरी है. उन्होंने बताया कि दक्षिण लोनाक झील फिर से खतरा बन रही है और सितंबर-अक्टूबर में बढ़ती बारिश एक खतरनाक क्लाइमेट पैटर्न का संकेत है. छेत्री ने दावा किया कि हाइवे और रेल लाइन बनाने के लिए हो रही बड़ी पैमाने पर पहाड़ काटाई ने इलाके को अस्थिर कर दिया है.
1968 की त्रासदी की गूंज
ताजा आपदा 1968 की उस भयावह बारिश की याद दिलाती है, जब लगातार बरसात ने पूरे इलाके में हजारों बस्तियां बहा दी थीं और करीब 1,000 लोग मारे गए थे.
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