पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय आधिकारिक तौर पर कह रहा है कि जो पैसा पहले कच्चे तेल के आयात पर खर्च किया जाता था, वह अब हमारे किसानों के पास जा रहा है. सरकार इस बात पर खुद अपनी पीठ थपथपा रही है, तालियां बजा रही है. केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी तो इथेनॉल से किसानों का फायदा होने का लगातार दावा कर ही रहे हैं. भाषणों में इथेनॉल को किसान की जिंदगी बदलने वाला क्रांतिकारी ईंधन बता रहे हैं. कहा तो यहां तक जा रहा है कि हमारे अन्नदाता अब ऊर्जादाता भी बन चुके हैं. लेकिन इस दावे से दूर गन्ना और मक्का के खेतों से आ रही किसानों की आवाज़ों को तो सुनिए जो इस मुहिम की कतई तस्दीक करती दिखाई नहीं दे रही हैं. हमने यूपी से लेकर महाराष्ट्र तक के किसानों से यह सवाल किया तो साफ तौर पर जवाब मिला कि हमें डायरेक्ट कोई बेनेफिट नहीं हो रहा है.
किसानों ने एक बात तो पुरज़ोर तरीके से कही कि हमें इथेनॉल पर एक रुपये लीटर का भी अतिरिक्त फायदा नहीं मिल रहा है. चीनी मिलें किसानों से एफआरपी (Fair and Remunerative Price) या फिर एसएपी (State Advised Price) पर गन्ना पहले भी खरीदती थीं और अब भी खरीद रही हैं. फर्क बस इतना है कि पहले छह महीने या साल भर बाद आने वाला भुगतान अब थोड़ा जल्दी मिलने लगा है. अगर भुगतान की तेजी ही सफलता है तो किसानों का कहना है कि यह तो उनका हक़ है. जिसे पहले देरी से दिया जा रहा था. अब समय पर दिया जाने लगा है. यह सराहना योग्य कदम तो है लेकिन इसमें सफलता या अहसान जैसी कोई बात नहीं हो सकती.
कानून को इथेनॉल का सहारा
हालांकि, शुगरकेन कट्रोल ऑर्डर, 1966 की धारा 3(3) और (3ए) कहती है कि चीनी मिलों को किसानों से खरीदे गए गन्ने का भुगतान डिलीवरी के 14 दिनों के भीतर करना जरूरी है और यदि मिल 14 दिनों के भीतर भुगतान करने में विफल रहती है, तो उसे 15 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से ब्याज देना होगा. दशकों से किसान इस हक़ के लिए तरसते रहे. सरकारें चुप रहीं, मिलें पैसे रोकती रहीं. आज कुछ मिलें जब थोड़ा जल्दी भुगतान कर रही हैं तो इसे इथेनॉल की जीत बताया जा रहा है. तो क्या यह माना जाए कि सरकार को कानून लागू कराने के लिए किसी इथेनॉल का सहारा चाहिए था?
यह बात सच है कि गन्ने का भुगतान पहले के मुकाबले जल्दी होने लगा है. इसे लेकर सरकार इतना इतरा रही है. लेकिन किसानों की आय डबल करने का नारा देने वाली सरकार से यहां यह पूछा जाना ही चाहिए कि क्या देरी से भुगतान करना चीनी मिलों या सरकार का कोई अधिकार है? अगर नहीं तो सरकार का कोई भी मंत्री कैसे इस बात को सफलता के तौर पर गिना सकता है कि इथेनॉल की वजह से किसानों को जल्दी भुगतान मिलने लगा है?
बहरहाल, किसान बता रहे हैं कि अब भी बहुत कम चीनी मिलें ऐसी हैं जो 14 दिन में भुगतान दे रही हों. अब भी कहीं एक तो कहीं दो और कहीं छह महीने में पैसा मिल रहा है. हां, यह बात सौ फीसदी सही है कि गन्ना किसानों को पहले के मुकाबले जल्दी पैसा मिलने लगा है. फिर भी क्या इसे यह कहकर प्रचारित किया जाएगा की इथेनॉल की वजह से किसानों को बहुत फायदा हो रहा है? जल्दी भुगतान का काम तो सरकार को इथेनॉल के बिना ही करवाना चाहिए था.
सिर्फ इथेनॉल को ही श्रेय नहीं
कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (CACP) के मुताबिक इथेनॉल उत्पादन से चीनी क्षेत्र के लाभ में सुधार हुआ है. अपनी एक रिपोर्ट में आयोग कहता है कि 2017-18 और 2018-19 के दौरान रिकॉर्ड गन्ना और चीनी उत्पादन के कारण चीनी की कीमतों में गिरावट आई, जिससे चीनी मिलों के लिए नकदी की समस्या पैदा हुई और गन्ना मूल्य बकाया राशि में भारी वृद्धि हुई. इस समस्या के समाधान के लिए सरकार ने कई उपाय किए.
जिनमें राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति 2018 के तहत पेट्रोल के साथ इथेनॉल मिश्रण (ईबीपी) कार्यक्रम, गन्ने की लागत की भरपाई और बफर स्टॉक बनाए रखने के लिए आर्थिक मदद, निर्यात सुविधा, रियायती ऋण, चीनी के लिए न्यूनतम विक्रय मूल्य (MSP) और इथेनॉल उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए ब्याज सहायता शामिल हैं. इन सभी पहलों से मिलों की नकदी में सुधार हुआ और गन्ना मूल्य बकाया राशि 2019-20 के 16.4 प्रतिशत से घटकर 2023-24 में 3.5 प्रतिशत रह गई, जिससे चीनी क्षेत्र में स्थिरता आई.
आयोग लिखता है कि इस सफलता की एक प्रमुख वजह चीनी का इथेनॉल उत्पादन में बढ़ा हुआ उपयोग था, जो 2018-19 में 3 लाख टन से बढ़कर 2022-23 में 43 लाख टन हो गया. पेट्रोल के साथ इथेनॉल मिश्रण ESY 2017-18 में 150.5 करोड़ लीटर से बढ़कर ESY 2023-24 में 607.4 करोड़ लीटर हो गया. चीनी की कीमतों को स्थिर करने और किसानों को भुगतान में सुधार करने में इन सब पहलुओं ने मदद की.
ये तो रही नीति आयोग की रिपोर्ट की बात. सच बात तो यह है कि गन्ने का पेमेंट देरी से करना न तो सरकार का अधिकार है और न चीनी मिलों का. समय पर भुगतान कराना और करना इनका काम है. लेकिन, ताज्जुब की बात यह है कि भुगतान में देरी के लिए मिलों पर जुर्माना लगाने और उन्हें दंडित करने की बजाय सरकार ने पहले के मुकाबले जल्दी भुगतान करने को अपनी सफलता मान लिया.
मक्का और इथेनॉल
सरकार की ओर से यह दावा भी किया जा रहा है कि इथेनॉल की वजह से मक्का किसानों को पहले से अधिक दाम मिलने लगा है. केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी इसे किसानों के लिए एक बड़ी सफलता के तौर पर पेश कर रहे हैं. लेकिन, यहां सवाल यह है कि इथेनॉल से पहले क्या मक्के की एमएसपी न देना व्यापारियों और कंपनियों का अधिकार था? अच्छे दाम के लिए क्या इथेनॉल का ही इंतजार था? गन्ना, टूटे चावल और मक्का से इथेनॉल बनाने का काम कई साल से चल रहा है. इसलिए मंत्री जी के इस दावे की भी आंकड़ों के आईने में तस्दीक कर लेनी चाहिए कि क्या वाकई किसानों को मक्के का सही दाम मिला है?
असल में, सरकार की रिपोर्ट ही बता रही है कि पिछले पांच साल में मक्का किसानों को एमएसपी जितना भी औसत दाम नहीं मिल सका है. अगर सी-2 (Comprehensive Cost) लागत पर बात करें तो किसानों को उनकी लागत जितना पैसा भी नहीं मिला है. सी2 (समग्र लागत) में वास्तविक खर्चों के अलावा स्वामित्व वाली भूमि और पूंजी के अनुमानित किराए व ब्याज को भी शामिल किया जाता है. कुल मिलाकर इथेनॉल को लेकर किसानों के फायदे के नाम पर झूठ का एक पहाड़ खड़ा करने की कोशिश जारी है.
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