राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने H-1B वीज़ा के नए नियम लागू किए हैं, जिसके तहत अब इस वीज़ा कार्यक्रम पर एक लाख डॉलर की फीस लगेगी. अमेरिका का यह कदम भारतीय पेशेवरों के लिए यह बड़ा झटका है. इस बीच, आइए जानते हैं कि H-1B वीज़ा क्या होता है और इसका भारतीयों पर कैसे असर पड़ेगा.
H-1B वीज़ा क्या है और किसे मिलता है?
अमेरिका में नौकरी करने वाले भारतीय पेशेवरों की खूब सराहना होती है. अपनी प्रतिभा और कौशल के दम पर वे विदेशी कंपनियों में काम करते हैं. इसके लिए H-1B वीज़ा लेना आवश्यक है, जो अमेरिकी कंपनियों को उच्च कौशल वाले विदेशी कर्मचारियों को अस्थायी तौर पर नियुक्त करने की अनुमति देता है.
अमेरिकी श्रम विभाग के अनुसार, H-1B वीज़ा कार्यक्रम अमेरिकी कंपनियों को उन व्यवसायों के लिए अप्रवासी कर्मचारियों को नियुक्त करने की अनुमति देता है, जिनके लिए हाई स्किल्स और स्नातक की डिग्री की ज़रूरत होती है. 1990 के इमिग्रेशन एक्ट के तहत, यह कार्यक्रम उन नियोक्ताओं की मदद के लिए बनाया गया था, जिन्हें अमेरिकी श्रमिकों से ज़रूरी कौशल नहीं मिल पाते थे. इसके तहत, योग्य विदेशी पेशेवरों को अस्थायी तौर पर नौकरी देने की अनुमति दी गई.
1990 के दशक में, जब टेक्नोलॉजी सेक्टर तेज़ी से बढ़ रहा था, तब माइक्रोसॉफ्ट, ओरेकल, और बाद में गूगल और अमेज़न जैसी कंपनियों को उच्च कौशल वाले कर्मचारियों की ज़रूरत थी. इसके बाद H-1B वीज़ा लाया गया, जिससे इन कंपनियों को भारत और चीन जैसे देशों से लाखों उच्च कौशल वाले कर्मचारियों को नियुक्त करने की सुविधा मिली.
नियमों के मुताबिक, H-1B वीज़ा तीन साल के लिए वैलिड होता है और इसे एक बार रिन्यू किया जा सकता है, यानी कुल छह साल के लिए. यह वीज़ा 65,000 सामान्य आवेदकों को और 20,000 अतिरिक्त वीज़ा उन लोगों को दिया जाता है जिनके पास अमेरिकी विश्वविद्यालय से मास्टर या उससे उच्च डिग्री है. इसकी मांग इतनी ज़्यादा बढ़ी कि वीज़ा लॉटरी सिस्टम से दिए जाने लगे.
H-1B वीजा के 70% आवेदक भारतीय
यह वीज़ा उन उम्मीदवारों को मिलता है जो टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, हेल्थकेयर, अनुसंधान, और अन्य विशिष्ट क्षेत्रों में काम करते हैं और उनके पास उच्च कौशल हैं. भारतीय नागरिक अब तक लाभार्थियों का सबसे बड़ा समूह हैं. 2015 के आंकड़ों के अनुसार, हर साल स्वीकृत H-1B आवेदनों में से 70% से अधिक भारत से थे, जबकि चीन का हिस्सा लगभग 11% था.
अक्टूबर 2022 और सितंबर 2023 के बीच, जारी किए गए लगभग 400,000 H-1B वीज़ा में से 72% भारतीय नागरिकों को मिले. इंफोसिस, टीसीएस, एचसीएल, और विप्रो जैसी प्रमुख भारतीय आईटी फ़र्मों ने अकेले इस अवधि के दौरान लगभग 20,000 कर्मचारियों के लिए आवेदन मिले.
H-1B वीज़ा पर फीस क्यों?
दरअसल, जब कोई अमेरिकी कंपनी किसी विदेशी को H-1B वीज़ा के लिए स्पॉन्सर करती है, तो उन्हें अलग-अलग तरह की सरकारी फीस चुकानी पड़ती है. अब तक ये फीस कंपनियों की कैटेगरी के मुताबिक 2000 डॉलर से लेकर 5000 डॉलर के बीच रहती थी लेकिन हाल ही में 19 सितंबर 2025 को अमेरिकी सरकार ने H-1B वीज़ा नियमों में बड़ा बदलाव किया है. नए नियमों के तहत, अब हर H-1B वीज़ा के लिए अमेरिकी कंपनी को 1 लाख अमेरिकी डॉलर (USD 100,000) फीस चुकानी होगी. यह रकम भारतीय रुपये में लगभग 88 लाख रुपये हुई.
यह नया नियम ज़्यादातर उन लोगों पर असर डालेगा जो अमेरिका से बाहर हैं और H-1B वीज़ा पर वहां जाकर नौकरी करना चाहते हैं. एक लाख डॉलर की यह फीस भारतीय रुपये में लगभग 88 लाख होती है, जो एक बहुत बड़ी रकम है. जाहिर है, कोई भी कंपनी एक कर्मचारी पर इतना पैसा खर्च नहीं करेगी. अनुमान है कि अब कंपनियां भारत से कर्मचारियों को हायर करना बंद कर देंगी. इसका सीधा असर उन लोगों पर पड़ेगा जो अमेरिका में नौकरी करना चाहते हैं या नौकरी कर रहे हैं.
जो लोग वहां नौकरी कर रहे हैं, उन्हें छह साल बाद वीज़ा फिर से रिन्यू कराना होगा और इसके लिए 88 लाख रुपये की फीस लगेगी. यह संभावना कम है कि अमेरिकी कंपनियां अब विदेशी या भारतीय कर्मचारियों पर इतना ख़र्च करेंगी. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कहना है कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया है ताकि कंपनियां अमेरिकी उम्मीदवारों को हायर करें, न कि कम वेतन देने के चक्कर में विदेशी कर्मचारियों को. डेटा के अनुसार, अमेरिका की एक कंपनी को 5,189 H-1B वीज़ा मंजूर किए गए थे, इसके बदले में उशने उसने 16,000 अमेरिकी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया. इसी तरह, दूसरी कंपनी को 1,698 H-1B वीज़ा मिले और इस कंपनी ने 2,400 कर्मचारियों की छंटनी की.
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