श्राद्ध पक्ष का अब बीतने को है. महालया के साथ इसकी समाप्ति हो जाएगी और फिर नवरात्रि का आगमन होगा. श्राद्ध पक्ष के पूरे 15 दिन पितरों-पूर्वजों को याद करने के दिन हैं. श्राद्ध कल्प विधान यह भी बताता है कि भविष्य की ओर देख रहे वर्तमान को भूतकाल की उंगलियां भी थामकर रखनी चाहिए. यह बेहद जरूरी है जीवन के लिए उपयोगी अनुभव भी देता है. ऐसे में पितरों के लिए तर्पण की क्रिया बेहद जरूरी हो जाती है.
तिल और कुशा क्यों हैं पवित्र?
तर्पण किए जाने में तिल और कुशा का प्रयोग सबसे जरूरी होता है. कहते हैं कि ये दोनों ही वस्तुएं पूर्वजों की आत्माओं को सीधे मोक्ष की ओर ले जाती हैं. सवाल है कि आखिर ये दोनों ही वस्तुएं कैसे मोक्ष पाने में सहायता करती हैं. इसका उत्तर मिलता है कि बिहार के बक्सर जिले में. बक्सर उन प्राचीन नगरियों में से एक है जिनकी उत्पत्ति सृष्टि की रचना के साथ हुई थी. बक्सर का प्राचीन नाम व्याघ्रसर है. इसके अलावा अलग-अलग युगों में इसे वेदगर्भा और बामनाश्रम भी कहा गया है.
इसी बक्सर का एक इतिहास भगवान विष्णु के वाराह अवतार से भी जुड़ा हुआ है. जब हिरण्याक्ष ने धरती को सागर में जाकर छिपा दिया था तब ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लिया. यह मोटी खाल और मोटे रोएं वाला जंगली शूकर (सुंअर) का पशु रूप अवतार था. भगवान विष्णु धरती पर अवतरित होकर आए. इसके बाद पाताल जाने के लिए उन्होंने एक सर यानी तालाब का रास्ता चुना.
बक्सर की प्राचीन मान्यता
मान्यता है कि बक्सर क्षेत्र में एक प्राचीन तालाब से ही पाताल का मार्ग था. हालांकि यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है. किवदंती है कि वाराह अवतार ने यहां से पाताल प्रवेश किया. उन्होंने हिरण्याक्ष का वध कर दिया और पृथ्वी को अपनी सींग पर टिकाकर बाहर निकले. इस दौरान उनके शरीर के कुछ मोटे रोम धरती पर गिर गए. मान्यता है कि इन्हीं से बाद में कुशा की उत्पत्ति हुई है. हालांकि यही कथा उत्तर प्रदेश के जिले बाराबंकी और सीतापुर के लिए भी कही जाती है.
कुशा सबसे पवित्र घास मानी जाती है. यह मोटी, धारदार और खुरदुरी होती है. पितरों को इसके जल से पानी दिया जाता है तो वह तृप्त होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं.
तिल कैसे हुआ उत्पन्न?
इसी तरह तिल की उत्पत्ति का भी पौराणिक कथाओं में जिक्र है. कहते हैं कि जब हिरण्य कश्यप अपने पुत्र प्रहलाद पर लगातार अत्याचार कर रहा था तो यह देखकर भगवान विष्णु क्रोध से भर उठे. गुस्से में उनका सारा शरीर पसीने से भर गया. यह पसीना जब जमीन पर गिरा तब तिल की उत्पत्ति हुई. तिल को गंगाजल के ही समान पवित्र माना गया है. माना जाता है कि जिस तरह गंगा जल का स्पर्श मृत आत्माओं को वैकुंठ के द्वार तक पहुंचा देता है ठीक इसी तरह तिल भी पूर्वजों, भटकती आत्माओं और अतृप्त जीवों को मोक्ष का मार्ग दिखाता है. इसीलिए श्राद्ध कर्म के दौरान तिल और कुशा जरूरी हो जाते हैं.
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