बिहार की सियासत में पाँच साल पहले असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम ने पांच सीटें जीतकर सभी को चौंका दिया था. अब एक बार फिर से एआईएमआईएम ने बिहार चुनाव में मैदान में उतरने का ऐलान किया है, लेकिन इस बार महागठबंधन के साथ मिलकर किस्मत आजमाने को बेताब है. ओवैसी के सिपहसालार अख्तरुल ईमान हरसंभव कोशिश कर चुके हैं, लेकिन महागठबंधन का दरवाज़ा उनके लिए नहीं खुल रहा.
एआईएमआईएम के प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल ईमान महागठबंधन में शामिल होने के लिए कई बार गुहार लगा चुके हैं. आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव को पत्र लिखने से लेकर उनके दरवाज़े पर दस्तक दे चुके हैं. इसके बावजूद कांग्रेस और आरजेडी महागठबंधन में ओवैसी को एंट्री देने के लिए तैयार नहीं हैं. क्या सीमांचल का सियासी सीन बदल गया है?
असदुद्दीन ओवैसी के बिहार चुनाव में उतरने से 2020 की तरह मुस्लिम वोटों में बिखराव का खतरा हो सकता है. इसके बाद भी कांग्रेस और आरजेडी उन्हें अपने साथ रखने के लिए राज़ी नहीं हैं, जबकि मुकेश सहनी, पशुपति पारस और आईबी गुप्ता की पार्टी के लिए महागठबंधन के दरवाज़े खोल दिए हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि ओवैसी के साथ हाथ मिलाने के लिए न तो कांग्रेस और न ही आरजेडी तैयार है?
महागठबंधन में एंट्री को ओवैसी बेताब?
बिहार विधानसभा चुनाव में मुस्लिम समाज के वोटों को बंटने से रोकने की दुहाई देकर ओवैसी की पार्टी महागठबंधन का हिस्सा बनना चाहती है. एआईएमआईएम 243 सीटों में से सिर्फ 6 सीटें ही मांग रही है, जबकि 2020 में उसने पाँच विधायक जीते थे. साल 2020 के चुनाव में एआईएमआईएम ने जिन 19 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से पांच सीटें उसने जीती थीं और चार सीटों पर तीसरा स्थान हासिल किया था. एआईएमआईएम को बिहार में कुल 5 लाख 23 हज़ार 279 वोट मिले थे. इस तरह से उसे 1.3 फीसदी वोट मिले थे.
एआईएमआईएम ने सभी सीटें बिहार के सीमांचल के इलाके में जीती थीं, जहां मुस्लिम आबादी बहुत अधिक है. हालांकि, बाद में चार एआईएमआईएम विधायकों ने आरजेडी का दामन थाम लिया था. सीमांचल के इलाके में ओवैसी का सियासी आधार माना जाता है. इसके बाद भी एआईएमआईएम को महागठबंधन में न तो कांग्रेस तैयार है और न ही आरजेडी राज़ी है. बिहार के कांग्रेस प्रभारी कृष्ण अल्लावरू ने ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को गठबंधन में लेने के सवाल को लालू यादव के पाले में डाल दिया है तो आरजेडी पहले ही इनकार कर चुकी है.
ओवैसी के साथ हाथ मिलाने से क्यों परहेज़?
अख्तरुल ईमान की तमाम कोशिशों के बाद भी एआईएमआईएम के लिए आरजेडी और कांग्रेस दरवाज़ा नहीं खोल रहे हैं. इसकी बड़ी वजह ओवैसी की सियासी छवि है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि ओवैसी के साथ हाथ मिलाने में फायदा कम और सियासी नुकसान ज़्यादा है. इसीलिए बिहार का इंडिया गठबंधन उनसे दूरी बनाए रखकर राजनीतिक दांव चल रहा है.
ओवैसी की राजनीतिक तौर-तरीके से वोटों के ध्रुवीकरण की संभावना हमेशा बनी रहती है. असदुद्दीन ओवैसी की छवि एक कट्टर मुस्लिम नेता के तौर पर है और उनके भाषण भी इसी तरह के हैं. ऐसे में ओवैसी के साथ हाथ मिलाने से हिंदू वोटरों का ध्रुवीकरण होगा. ओवैसी के साथ मैदान में उतरने पर उन पर भी मुस्लिम परस्त और कट्टरपंथी पार्टी के साथ खड़े होने का आरोप लगाने का मौका बीजेपी को मिल सकता है.
ओवैसी के भाषण और मुस्लिम परस्त छवि के चलते हिंदू वोट एकजुट होने का भी खतरा बन जाता है, जिस वजह से तेजस्वी यादव और कांग्रेस बिहार में एआईएमआईएम से हाथ मिलाने से बच रहे हैं. असम में कांग्रेस ने बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एयूडीआईएफ के साथ 2021 में मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा था. एयूडीआईएफ के साथ हाथ मिलाने के चलते कांग्रेस को सियासी नफे से ज़्यादा नुकसान उठाना पड़ गया था, क्योंकि बदरुद्दीन अजमल की छवि एक कट्टर मुस्लिम नेता की है. वैसी ही ओवैसी के साथ भी है.
बिहार में सिर्फ मुस्लिम वोटों के सहारे सरकार नहीं बनाई जा सकती है. इसीलिए आरजेडी से लेकर कांग्रेस तक ओवैसी की पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करना चाहते. इसके अलावा ओवैसी के साथ हाथ मिलाने पर तेजस्वी और कांग्रेस दोनों के लिए भविष्य में सियासी खतरा उत्पन्न हो सकता है, जिसके चलते भी गठबंधन के लिए राज़ी नहीं हैं.
ओवैसी की राजनीति से भविष्य में खतरा
बिहार में आरजेडी और कांग्रेस की पूरी सियासत वोटबैंक पर टिकी है. मुस्लिम कांग्रेस-आरजेडी के परंपरागत वोटर हैं और ओवैसी की नज़र मुस्लिमों पर ही टिकी है. आरजेडी और कांग्रेस की पूरी कोशिश मुस्लिम वोटों को एकमुश्त अपने साथ बाँधकर रखने की है. ऐसे में ओवैसी को साथ लेने पर मुस्लिम वोट के भविष्य में उनके साथ शिफ्ट होने का खतरा दिख रहा है.
2014 के बाद से राजनीतिक पैटर्न बदल गया है. देश में अब बहुसंख्यक समाज केंद्रित राजनीति हो गई है और इस फॉर्मूले के जरिए बीजेपी लगातार चुनाव जीत रही है. असदुद्दीन ओवैसी के साथ हाथ मिलाने से बहुसंख्यक वोटर का ध्रुवीकरण होगा. यूपी में सिर्फ मुस्लिम वोटों के सहारे सरकार नहीं बनाई जा सकती है. इसीलिए सूबे का कोई भी प्रमुख दल ओवैसी की पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करना चाहता.
सीमांचल का कैसे बदल गया सियासी गेम?
बिहार का सीमांचल का इलाका असम और पश्चिम बंगाल से सटा हुआ है. ओवैसी ने बिहार में इसी सीमांचल इलाके को अपनी सियासत की प्रयोगशाला बनाया है, क्योंकि यहाँ पर 40 से 70 फीसदी तक मुस्लिम आबादी है. 2020 के चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के चलते बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी सीमांचल में बनकर उभरी थी. मुस्लिम वोटों के दम पर 2020 में ओवैसी ने कांग्रेस और आरजेडी का खेल बिगाड़ दिया था, जिससे बीजेपी को अप्रत्याशित लाभ मिला. हालाँकि, सीमांचल में एक समय कांग्रेस और आरजेडी का दबदबा रहा है, लेकिन ओवैसी की एंट्री से सीमांचल का गेम बदल गया था.
सीमांचल की सियासत पर नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार हसन जावेद कहते हैं कि 2020 में ओवैसी ने जिस तरह से सीमांचल पर फोकस किया था, उस तरह से इस बार उनकी सक्रियता नहीं दिखती. 2020 में मुस्लिम समाज ने बड़ी उम्मीद के साथ उन्हें वोट दिया था, लेकिन देखा कि उससे सियासी लाभ बीजेपी को मिला है. इसके चलते ही बाद में एआईएमआईएम से जीते चार विधायकों ने आरजेडी का दामन थाम लिया. इसके अलावा तेजस्वी यादव ने वक्फ कानून का विरोध करने को लेकर पसमांदा मुस्लिमों तक को साधने की कोशिश की है.
राहुल-तेजस्वी की राजनीति से बदलेगा सीन
राहुल गांधी ने जिस तरह सीमांचल पर फोकस कर रखा है, उसके चलते सीमांचल का सियासी गेम बदल गया है. राहुल गांधी ने पिछले दिनों वोटर अधिकार यात्रा के जरिए सीमांचल को साधने का दांव चला था. सीमांचल में वोटर लिस्ट रिवीजन यहां एक बड़ा मुद्दा है. सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर आक्रामक ‘वोट अधिकार यात्रा’ निकालकर मुस्लिमों को अपने पक्ष में लामबंद करते नज़र आए हैं. राहुल ने अपनी यात्रा के जरिए सीमांचल के तीन जिलों की आठ विधानसभा सीटों को कवर किया था, जिनमें कटिहार का बरारी, कोढ़ा, कटिहार, कदवा, जबकि पूर्णिया का कसबा, पूर्णिया सदर और अररिया का अररिया और नरपतगंज शामिल हैं.
बिहार का चुनाव एनडीए और इंडिया ब्लॉक के बीच सिमटता जा रहा है, जिसके चलते ओवैसी की राजनीति काफी मुश्किल हो सकती है. इस बात को आरजेडी और कांग्रेस समझ रहे हैं. ओवैसी ने 2020 में मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण करके चौंकाने वाले नतीजे दिए थे. इस बार भी यह पार्टी अकेले दम पर चुनाव में ताल ठोकेगी, जिससे मुस्लिम वोटों का उनके पक्ष में झुकाव होना काफी मुश्किल है. यही वजह है कि ओवैसी को सियासी भाव देकर आरजेडी और कांग्रेस भविष्य में अपनी राजनीति के लिए नई चुनौती खड़ी नहीं करना चाहती हैं.
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