कोहिनूर को दुनिया का सबसे बड़ा हीरा माना जाता है. इस हीरे से जुड़ी कई कहानियां और मिथक हैं, जो आज की नहीं बल्कि सदियों पुरानी है. यह हीरा हमेशा से चर्चा में रहा है. महारानी एलिजाबेथ द्वितीय की मृत्यु के तुरंत बाद भी एक चर्चा शुरू हुई थी कि कोहिनूर किस देश को मिलेगा? अब इसी कोहिनूर से जुड़े एक और बेशकीमती पत्थर चर्चा में है. इसका नाम दरिया-ए-नूर है.
एक ओर जहां कोहिनूर का खूनी इतिहास और इससे जुड़ी कहानियां लोगों को सदियों से अपनी ओर आकर्षित करती रही है. वहीं अब इससे जुड़ा एक और रहस्य सामने आया है. इन दिनों कोहिनूर की बहन की चर्चा हो रही है. यह एक 26 कैरेट का हीरा है, जिसे दरिया-ए-नूर कहा जाता है.
कोहिनूर के बाद दूसरा सबसे कीमती हीरा
बांग्लादेश के बिजनेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, कोहिनूर से संबंधित दरिया-ए-नूर भी एक बेशकीमती हीरा है. फिलहाल इसका बांग्लादेश के किसी तिजोरी में बंद होने की बात कही जा रही है. रिपोर्ट के अनुसार कहा जा रहा है कि यह हीरा बांग्लादेश के सरकारी सोनाली बैंक की तिजोरियों में कहीं रखा हुआ है.
बांग्लादेश में स्थित दरिया-ए-नूर की कभी तस्वीर नहीं खींची गई. इसकी कहानी कोहिनूर जितनी प्रसिद्ध नहीं है. फिर भी इससे जुड़े किस्से गलतियों, त्रासदियों, विश्वासघात और षड्यंत्रों से भरे पड़े हैं. लगभग छह साल पहले खबर आई थी कि हीरा गायब हो गया है. इस कथित डकैती ने सरकारी अधिकारियों को हिलाकर रख दिया. इसके बाद बांग्लादेश के भूमि मंत्रालय की एक संसदीय समिति ने जल्द ही इस संबंध में एक बैठक बुलाई थी.
इस वजह से कोहिनूर की बहन कहलाई दरिया-ए-नूर
ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार, 26 कैरेट का यह हीरा एक आयताकार मेज के आकार की सतह जैसा है. यह हीरा एक सोने के बाजूबंद के बीच में मजबूती से जड़ा हुआ है. इसके चारों ओर लगभग पांच कैरेट के दस छोटे हीरे जड़े हुए हैं. ऐसा माना जाता है कि यह हीरा भी दक्षिण भारत के उसी खदान से निकला था, जहां से कोहिनूर को निकाला गया था. वहीं एक साथ इन दोनों हीरों को महाराजा रणजीत सिंह ने अपने दोनों हाथों में धारण किया था. इस वजह से दरिया-ए-नूर को कोहिनूर की बहन कहा जाता है.
क्या है दरिया-ए-नूर की पूरी कहानी
दरिया-ए-नूर की कहानी भी पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह से शुरू होती है, जो कोहिनूर के भी मालिक थे. उन्होंने दोनों हीरों को बाजूबंद की तरह पहना था. समय के साथ-साथ, जब उपनिवेशवादी साम्राज्यों का उदय हुआ और उन्होंने एक समय समृद्ध रही इस भूमि को पूरी तरह से अव्यवस्थित कर दिया, तो हीरे का स्वामित्व बदल गया.
अपने भाई की तरह, दरिया-ए-नूर को भी पंजाब के अंतिम राजा दिलीप सिंह द्वारा लाहौर से रानी विक्टोरिया के पास भेजा गया था. फिर से भारत भेजे जाने से पहले, यह एक प्रदर्शनी, ग्रेट एग्जिबिशन के लिए लंदन में रखा गया था. इसे नवाब खानदान के ख्वाजा अलीमुल्लाह ने 1852 में एक नीलामी में 75,000 टका में खरीदा था.
ऐसे बांग्लादेश पहुंचा दरिया-ए-नूर
1908 में कर्ज में डूबे नवाब सलीमुल्लाह ने दरिया-ए-नूर और नवाब की पूरी संपत्ति, जिसमें चल और अचल संपत्ति भी शामिल थी, को गिरवी रख दिया. तब से यह हीरा इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया से होकर स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान और फिर बांग्लादेश के सोनाली बैंक तक पहुंच गया.
रहस्य बना हुआ है दरिया-ए-नूर
दरिया-ए-नूर के संबंध में पारदर्शिता की कमी के कारण बिजनेस स्टैंडर्ड ने इस मामले को उठाया. क्योंकि यह अब भी बांग्लादेश के सोनाली बैंक में ही है या फिर इसे कहीं और भेज दिया गया. यह रहस्य बरकरार है. अनेक पुराने दस्तावेजों की गहनता से जांच करने के बाद, बाजूबंद की एक हूबहू ‘प्रतिकृति’ भी सामने आई. वहां दो पेंटिंग्स भी थीं. दोनों ही ब्रिटिश काल की थीं और उनकी गुणवत्ता शब्दों से ज़्यादा तस्वीरें बयां कर रही थीं.
दरिया-ए-नूर की असली तस्वीर कभी नहीं आई सामने
हीरे का एक अन्य प्रतिरूप 31 मई 1951 को इलस्ट्रेशन लंदन न्यूज में प्रकाशित हुआ. जल्द ही इसके कुछ और रेखाचित्र मिले, लेकिन एक भी चित्र नहीं था. सबसे पुरानी ज्ञात छवि हंगेरियन चित्रकार ऑगस्ट शेफ़्ट द्वारा 1841 में बनाई गई एक पेंटिंग से ली गई है. इसमें रणजीत सिंह के बेटे को अपने बाएं हाथ में हीरा पहने हुए दिखाया गया है. लेकिन क्या यह वह हीरा था जिसके लिए बांग्लादेश को प्रसिद्ध होना चाहिए था?
दरिया-ए-नूर को लेकर अलग-अलग दावे
कोहिनूर और दरिया-ए-नूर को अक्सर दुनिया के दो सबसे मूल्यवान हीरे माना जाता है.इनका इतिहास इनके स्वामित्व को लेकर लड़ाइयों से भरा पड़ा है. एक शासक जितने बड़े हीरे दिखाता था, उसकी प्रतिष्ठा उतनी ही बढ़ती थी.
लेकिन जैसे-जैसे हाथ बदलते गए, कभी-कभी वही नाम इस्तेमाल होते गए. एक अन्य कहानी के अनुसार, रणजीत सिंह ने संभवतः अपने हीरे का नाम दरिया-ए-नूर रखा होगा, जो आज ईरान में मौजूद 182 कैरेट के हीरे का नाम है. कहा जाता है कि एक और दरिया-ए-नूर आज भी ईरान के केंद्रीय बैंक में है. क्या यह वही हीरा है?
मई 1922 में, अफगानिस्तान की राजकुमारी फातिमा न्यूयॉर्क में नीलामी के लिए दरिया-ए-नूर नामक एक हीरा लेकर आईं. उन्होंने दावा किया कि यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा हीरा है.दूसरी ओर, 1763 में एम्स्टर्डम में एक और मेज के आकार का हीरा भेंट किया गया. कहा जाता है कि यह हीरा नादिर शाह का था. इसकी एक तस्वीर मासिक डच मर्करी पत्रिका में छपी थी. लेकिन इस हीरे का असली नाम शायद शाहजहां हीरा था.
दरिया-ए-नूर को लेकर प्रचलित हैं कई कहानियां
इस तरह हीरे का नामकरण का उद्देश्य यह दर्शाना था कि उनके संग्रह में दुनिया के दो सबसे मूल्यवान हीरे हैं. यानी दरिया-ए-नूर ही कोहिनूर के बाद दूसरा सबसे बड़ा और कीमती हीरा है. दरिया-ए-नूर का अधिक प्रामाणिक संस्करण हैमिल्टन एंड कंपनी के पास हो सकता है, जो भारत में अंग्रेजों का एक विश्वसनीय सुनार और जौहरी था.
भारत के स्वतंत्र होने तक यह उनकी निगरानी में रहा. हीरे की कहानी राजा जॉर्ज और रानी मैरी तक तब पहुंची जब वे जनवरी 1912 में कलकत्ता आये. राजा जॉर्ज ने कहा कि उन्हें इस हीरे के बारे में पहले से ही पता था, क्योंकि इसे रानी विक्टोरिया को भेजा गया था, जिन्हें यह पसंद नहीं आया.
क्वीन विक्टोरिया को पसंद नहीं था ये हीरा
यह हीरा तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन और लेडी डफरिन ने 1887 में कलकत्ता के बल्लीगंज स्थित नवाब के घर पर देखा था. अपनी पुस्तक “आवर वाइसरॉयल लाइफ इन इंडिया” में लेडी डफरिन ने लिखा है कि चपटा हीरा होने के कारण, दरिया-ए-नूर हमें ज़्यादा आकर्षक नहीं लगा. शायद यही चपटापन ही वजह थी कि विक्टोरिया ने इसे पसंद नहीं किया.
इंग्लैंड से दोबारा भारत आया था हीरा
भारत के विदेश राजनीतिक विभाग के एक अधिकारी जेबी वुड्स ने 7 जनवरी 1912 को लिखे एक पत्र में लिखा है कि नवाब का कर्ज चुकाने के लिए दरिया-ए-नूर को मेसर्स हैमिल्टन द्वारा फिर से इंग्लैंड ले जाया गया. यदि इसे वापस कर दिया जाता तो इसे राजा और रानी के समक्ष प्रदर्शित करने की व्यवस्था की जा सकती थी.
वुड के अनुसार, विशेषज्ञों ने इसकी कीमत £1,500 से ज़्यादा नहीं आंकी थी. 1948 तक, दरिया-ए-नूर हैमिल्टन की देखरेख में बैंक में ही रहा. हैमिल्टन एंड कंपनी के अनुसार, दरिया-ए-नूर उच्चतम शुद्धता वाला एक टेबल-कट हीरा है, जो एनामेल्ड सोने पर जड़ा हुआ है. इसकी पूंछ पर दस मोती (जॉन लॉगइन के अनुसार 11) भी लगे हुए हैं.
अंग्रेजों से ढाका के नवाब ने खरीदा दरिया-ए-नूर
हैमिल्टन के इतिहास के अनुसार, 26 कैरेट का यह हीरा लंबे समय तक मराठा राजाओं के पास रहा. हैदराबाद के तत्कालीन मंत्री नवाब सिराज-उल-मुल्क के परिवार ने इसे 130,000 टका में खरीदा था. बाद में यह पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह तक पहुंचा. रणजीत सिंह के बाद, अंग्रेजों के प्रभाव में पंजाब का शासन तेजी से बदला और यह इंग्लैंड चला गया. इसके बा इसे नवाब अलीमुल्लाह ने खरीद लिया और ढाका ले आये.
अब भी बांग्लादेश में ही सुरक्षित है हीरा
बांग्लादेश को सौंपे जाने के बाद से हीरा सोनाली बैंक की तिजोरी में भी रखा हुआ है. इस तिजोरी को आखिरी बार 1985 में खोला गया था और सत्यापित किया गया था. यह ज्ञात नहीं है कि उस समय कोई चित्र लिया गया था या नहीं, जो कुछ चित्र या रेखाचित्र बचे हैं, वे ही इसके अस्तित्व का एकमात्र प्रमाण हैं.
जब छह साल पहले इसके लापता होने की खबर सामने आई तो सरकार ने तुरंत कार्रवाई शुरू कर दी. उन्होंने सोनाली बैंक के अधिकारियों और भूमि सुधार बोर्ड के अधिकारियों से, जो हीरों के संरक्षक थे, पूछताछ की. सभी ने कहा कि उन्होंने हीरा कभी नहीं देखा.
दशकों से बांग्लादेशी बैंक की तिजोरी में है बंद
सैन्य शासन के बाद पिछले तीन दशकों से इस तिजोरी को आधिकारिक तौर पर नहीं खोला गया था. आज तक अफ़वाहें फैलती रहती हैं कि क्या दरिया-ए-नूर तिजोरी में है. संपर्क करने पर, एक बैंक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर दावा किया कि दरिया-ए-नूर तिजोरी में ही है.
सुरक्षा कारणों से नहीं लग सकी कभी प्रदर्शनी
फैजुल लतीफ चौधरी ने राष्ट्रीय संग्रहालय के महानिदेशक के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, दरिया-ए-नूर को अपनी प्रदर्शनी के लिए संग्रहालय में लाने का प्रयास किया. उन्होंने कहा कि यह तिजोरी में है. इसे कई बार एक बैंक से दूसरे बैंक में स्थानांतरित किया जा सकता है. लेकिन यह असंभव है कि यह बिना किसी हलचल के गायब हो जाए. जब मैं राष्ट्रीय संग्रहालय का प्रभारी था, तब मैंने इस हीरे को लाने के लिए बहुत प्रयास किया था. लेकिन इसके अलावा, अन्य रत्न भी हैं. उनकी समग्र सुरक्षा के डर से, भूमि मंत्रालय ने प्रदर्शनी के लिए अनुमति नहीं दी.
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