आज पूरे देश में एक ही सवाल की चर्चा हो रही है और वो सवाल ये है कि क्या कानून अब सबके लिए बराबर होगा? क्या जिस तरह से एक कंपनी में नौकरी के लिए आवेदन करते वक्त हर शख्स का बैकग्राउंड चेक होता है और उसके खिलाफ कोई गंभीर आपराधिक मुकदमा होने पर उसे नौकरी नहीं दी जाती, क्या ठीक वैसा ही अब नेताओं के साथ होगा?
क्या इस देश में जो दागी नेता अपने आपराधिक मुकदमों को मेडल की माला बना लेते हैं और ये सोचते हैं कि इन मेडल्स को दिखाकर वो बड़े मंत्री और मुख्यमंत्री बन जाएंगे, क्या अब ये परंपरा बंद होगी?
ये सारी बातें इसलिए हो रही हैं क्योंकि केंद्र सरकार ने आज लोकसभा में इससे जुड़े तीन बिल पेश किए हैं, जिन पर अब काफी विवाद हो रहा है. इन प्रस्तावित बिल में ये लिखा है कि अगर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या किसी मंत्री पर ऐसी धाराओं में आपराधिक मुकदमा दर्ज होता है, जिनमें 5 साल या उससे ज्यादा सज़ा का प्रावधान है तो ऐसी स्थिति में गिरफ्तार होने के 31वें दिन उन्हें अपना पद छोड़ना होगा और अगर वो ऐसा नहीं करेंगे तो गिरफ्तारी के 31वें दिन खुद-ब-खुद इस पद से उन्हें हटा दिया जाएगा.
ऐसी स्थिति में भारत के राष्ट्रपति देश के प्रधानमंत्री की सलाह पर उस केन्द्रीय मंत्री को उसकी गिरफ्तारी के 31वें दिन तक उसके पद से हटा सकते हैं. अगर किसी वजह से देश का प्रधानमंत्री इस पर कोई फैसला नहीं लेता और वो केन्द्रीय मंत्री को बचाने की कोशिश करते हैं, तो ऐसी स्थिति में वो केन्द्रीय मंत्री अपनी गिरफ्तारी के 31वें दिन खुद इस पद से हट जाएगा और उनसे सारी ज़िम्मेदारी वापस ले ली जाएगी.
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इसी तरह से अगर प्रधानमंत्री को किसी आपराधिक मुकदमे में गिरफ्तार किया जाता है, तो ऐसे मामलों में प्रधानमंत्री को भी गिरफ्तारी के 31वें दिन तक इस्तीफा देना होगा और अगर वो ऐसा नहीं करते तो वो भी खुद-ब-खुद इस पद से हटा दिए जाएंगे.
यहां दोनों मामलों में छूट ये होगी कि कोर्ट से ज़मानत मिलने के बाद सत्तारूढ़ पार्टी चाहे तो वो उस नेता को फिर से प्रधानमंत्री या केन्द्रीय मंत्री चुन सकती है. इसी तरह के प्रावधान राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों पर भी लागू होंगे, जिसके लिए अनुच्छेद 164 में एक नया भाग जोड़ा जाएगा.
इसके तहत राज्य सरकार में कोई मंत्री गिरफ्तार होता है तो राज्यपाल, मुख्यमंत्री की सलाह पर 31वें दिन तक उस मंत्री को उसके पद से हटा सकते हैं और अगर खुद मुख्यमंत्री ही गिरफ्तार हो जाएं तो उन्हें भी 30 दिनों तक जेल में रहने के बाद 31वें दिन इस पद से हटा दिया जाएगा या उन्हें भी इससे पहले इस्तीफा देना होगा.
हर मंत्री पर लागू होंगे नियम…
ज़रूरी बात ये है कि ये बिल प्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्री, राज्य और केन्द्र शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री और मंत्रियों पर लागू होता है लेकिन इसमें विधायकों और सांसदों का कोई ज़िक्र नहीं है. इसका मतलब ये हुआ कि विधायकों और सांसदों पर अब भी वही नियम लागू होगा, जिसमें उनकी सदस्यता तब तक वैध होती है, जब तक अदालत से उन्हें दोषी नहीं ठहराया जाता और उन्हें दो साल या उससे ज्यादा की सज़ा नहीं होती.
सरकार का कहना ये है कि ये बिल संवैधानिक पदों पर बैठे नेताओं के चरित्र और आचरण को संदेह से परे रखेगा, जो नेता गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तार हुए हैं उनके इस्तीफे से जनता का विश्वास लोकतंत्र में मजबूत होगा. सरकार ये भी कह रही है कि जब जेल जाकर भी कोई नेता अपने पद को नहीं छोड़ता, तो इससे समाज में गलत संदेश जाता है. जैसा कि अरविंद केजरीवाल के मामले में हुआ था.
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शराब घोटाले में केजरीवाल ने नहीं दिया था इस्तीफा
शराब घोटाले में अरविंद केजरीवाल करीब पांच महीनों तक दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद रहे थे लेकिन इस दौरान उन्होंने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा नहीं दिया था.
इसी तरह सत्येंद्र जैन भी जब डेढ़ साल तक तिहाड़ जेल में बंद थे, तब उन्होंने अपने मंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया था और ना ही अरविंद केजरीवाल ने कभी उनसे इस्तीफा मांगा. और सबसे ज्यादा विवाद वी. सेंथिल बालाजी को लेकर हुआ था, जो मुख्यमंत्री MK स्टालिन की सरकार में ऊर्जा मंत्री थे।उन पर मनी लॉन्ड्रिंग और कैश के बदले नौकरी देने का आरोप था.
14 जून 2023 को ED ने उन्हें गिरफ्तार किया, लेकिन इसके बाद भी जब उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया तो राज्यपाल आर.एन.रवि ने खुद उन्हें मंत्री पद से हटा दिया था, जिस पर राज्यपाल और मुख्यमंत्री MK स्टालिन के बीच खूब विवाद हुआ. और कहा जा रहा है कि इसी विवाद के बाद केन्द्र सरकार अब ये कानून लेकर आई है.
विपक्ष कर रहा बिल का विरोध…
विपक्ष कह रहा है कि ये बिल भारत के संविधान का उल्लंघन है. इससे कानून का दुरुपयोग होगा और केन्द्र सरकार जिस मुख्यमंत्री को हटाना चाहेगी उसे गिरफ्तार करके 30 दिनों तक जेल में रखा जाएगा, जिससे वो सरकार से हट जाए और विपक्ष की एक बड़ी दलील ये भी है कि दोषी साबित होने से पहले किसी भी प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्री से उसका पद छीनना लोकतंत्र के खिलाफ है. और सरकार ने भी विरोध के बाद इस बिल को Joint Parliamentary Committee के पास भेज दिया है, जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के सांसद होते हैं.
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इस मुद्दे को ब्लैक और व्हाइट में समझना हो तो हमारे पास दो घटनाएं हैं. एक घटना 2013 की है, जब यूपीए की सरकार दागी नेताओं को बचाने के लिए एक Ordinance लाई थी. इसमें लिखा था कि अगर किसी सांसद को अदालत से सज़ा हो जाती है और ये सज़ा दो साल से ज्यादा है, तो तब भी वो नेता ऊपरी अदालत में अपील दायर करके सांसद बना रह सकता है. ये Ordinance दागी सांसद खुद को बचाने के लिए लाए थे, जिसका राहुल गांधी ने भी विरोध किया था और कहा था कि ऐसे अध्यादेश को तो फाड़कर फेंक देना चाहिए, लेकिन आज की सरकार है जो ये कह रही है कि मुख्यमंत्री और मंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री भी दागी हो जाएं तो उन्हें अपने पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है.
दागी नेताओं पर एक नज़र…
मौजूदा लोकसभा में 543 में से 251 यानी 46 फीसदी सांसद दागी हैं. इनमें भी 27 सांसद ऐसे हैं, जिनके खिलाफ निचली अदलातों में आरोप साबित भी हो चुके हैं. बड़ी पार्टियों में सबसे ज्यादा कांग्रेस के 49 प्रतिशत सांसद दागी हैं और बीजेपी के 39 प्रतिशत सांसद दागी हैं.
इसके अलावा लोकसभा के 170 यानी 31 फीसदी सांसदों पर रेप, हत्या, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ गंभीर अपराध के मुकदमें दर्ज हैं. इनमें बीजेपी के कुल 26 प्रतिशत यानी 63 सांसदों पर संगीन अपराध के आरोप हैं. कांग्रेस के 32 प्रतिशत यानी 32 सांसदों पर आरोप हैं, और समाजवादी पार्टी के 17 और टीएमसी के भी 7 सांसदों पर हत्या, रेप और लूट के मामलों में आरोप हैं.
इन आपराधिक मुकदमों के बाद भी ये नेता भारत की संसद का हिस्सा हैं. आज अगर कोई आम आदमी संसद में सिर्फ विजिटर गैलरी में जाना चाहे तो उसकी पूरी जांच होती है, उसका बैकग्राउंड चेक होता है कि कहीं उस पर कोई आपराधिक मुकदमा तो नहीं है, लेकिन जो नेता संसद के सदस्य हैं, उनके आपराधिक मुकदमों का कुछ नहीं होता और बहुत सारे नेता चाहते हैं कि वो जेल जाकर भी मंत्री और मुख्यमंत्री बने रहें.
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